क़िस्सा-ए-कंज़्यूमर: ऑर्डर-ऑर्डर.. ट्रेन की लेट-लतीफी से छूटी है फ्लाइट, रेलवे भरे 40,000 रुपए!
Qissa-e-consumer: मामला जरूर पुराना है, लेकिन जीत नई है. प्रयागराज (तब इलाहाबाद) से चले दो मुसाफिरों को इंडियन रेलवे ने दिल्ली 5 घंटे देरी से पहुंचाया और इसका ही हर्जाना अब रेलवे को भरना पड़ा.
‘बहुत देर की मेहरबां आते-आते’ कोच्चि की फ्लाइट ने दाग़ देहलवी की लाइन याद की और फुर्र हो गई. इस बात से बेपरवाह उसके दो उड़नार्थी अभी इलाहाबाद से दिल्ली की ओर बढ़ रही प्रयागराज एक्सप्रेस में ही फंसे हुए हैं. ट्रेन की लेट-लतीफी से लाचार और बेबस इलाहाबाद वाले दोनों भैया लोग जब तक दिल्ली पहुंचे तब खेल खतम पैसा हजम हो चुका था. 'अब का करें गुरू? फ्लाइट तो छूट गई. लेकिन गलती हमारी तो है नहीं. ये प्रयागराज एक्सप्रेस अगर करीब 5 घंटे लेट न हुई होती तो इस वक्त हम लोग आसमान में होते.’ ऐसी जबर खीझ आई श्री रमेश चंद्र और कंचन चंद्र जी को कि उन्होंने भी संगम की सौगंध उठा ली- ‘गुरू अब छोड़ना नहीं है. चाहे सुप्रीम कोर्ट तक लड़ना पड़े, लेकिन छोड़ना नहीं है.’ बाकी आप जानते ही हैं, जब कंज्यूमर कसम खा लेता है तो वो पूरी कायनात वाला ‘ओम शांति ओम’ का डायलॉग भी सही हो जाता है. इलाहाबाद के जिला उपभोक्ता अदालत से जो जंग शुरू हुई तो लखनऊ के राज्य उपभोक्ता अदालत और फिर दिल्ली में नेशनल कंज्यूमर कमीशन से होते हुए सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक पहुंची लेकिन आखिर में फैसला आया कंज्यूमर के हक में. देश की सबसे बड़ी अदालत ने हुक्म सुनाया- ‘गलती तो रेलवे की ही है, इसलिए हर्जाना तो भरना पड़ेगा.’
कंज्यूमर की शानदार जीत का ये पूरा किस्सा क्या है?
वैसे तो केस बरसों पुराना है लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई 6 अगस्त 2021 को हुई. इसलिए किस्सा अहम हो गया. हुआ कुछ ऐसा कि साल 2008 की 11 अप्रैल की रात रमेश चंद्र और कंचन चंद्र जी ने इलाहाबाद से प्रयागराज एक्सप्रेस पकड़ी. तय समय के मुताबिक ट्रेन को 12 अप्रैल सुबह 6:50 पर दिल्ली पहुंच जाना था. इसके बाद दोनों पैसेंजर्स को दिल्ली से कोच्चि की फ्लाइट पकड़नी थी. लेकिन यही नहीं हो पाया. क्योंकि ट्रेन पहुंची 11:30 बजे यानी करीब 5 घंटे लेट. इस चक्कर में फ्लाइट निकल गई. यहां से शुरू हुआ रेलवे मिनिस्ट्री के साथ दो-दो हाथ. पहली शिकायत हुई District Consumer Dispute Redressal Forum, Allahabad में. शिकायतकर्ताओं ने मानसिक यातना, उत्पीड़न जैसे आरोप लगाते हुए 9 लाख का हर्जाना मांगा. जिला अदालत ने इतना तो नहीं लेकिन 40,000 रुपए भरने का हुक्म सुनाया. रेलवे ने इस फैसले को चुनौती दी State Consumer Dispute Redressal Commission, Lucknow में लेकिन यहां भी पासा उल्टा पड़ा. इसके बाद बात पहुंची National Consumer Dispute Redressal Commission, New Delhi(NCDRC) में लेकिन 21 अक्टूबर 2020 को यहां भी रेलवे को मुंह की खानी पड़ी. आखिर में इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई.
रेलवे की कानूनी दुहाई, अदालत में काम ना आई
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हर अदालत में रेल मंत्रालय के वकीलों ने बार-बार कहा कि ट्रेन का लेट या टाइम पर होना उनके हाथ में नहीं है. चली तो समय से ही थी प्रयागराज से लेकिन रास्ते में लेट हो गई. उन्होंने इंडियन रेलवे कॉन्फ्रेंस कोचिंग रेट टैरिफ नंबर 26, पार्ट-1 के रूल नंबर 115 का हवाला भी दिया जिसके मुताबिक रेलवे किसी भी ट्रेन के सही टाइम पर अराइवल या डिपार्चर की गारंटी नहीं लेता. मतलब कि टाइम-टेबल में जो टाइम है उससे ट्रेन आगे या पीछे हो जाए तो रेलवे जिम्मेदार नहीं है. सरकार की तरफ से ये दुहाई तक दी गई कि इस केस में अगर मुआवजे का हुक्म हुआ तो ऐसे मामलों की बाढ़ आ जाएगी हुजूर. लेकिन अदालत में ये दलील खारिज हो गई. जिला से लेकर नेशनल कंज्यूम कोर्ट तक ने यही कहा कि रेलवे इस केस में पहले ही ट्रेन लेट होने का अनुमान लगा सकता था और पैसेंजर्स को इसकी जानकारी दे सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया. इसलिए ये सेवा में कमी का मामला बनता है.
मुआवजा भले ही छोटा हो, लेकिन ये जीत है बड़ी
एशिया का सबसे बड़ा और दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है इंडियन रेलवे. हर साल लाखों करोड़ों रुपए का बजट इसके मॉडर्नाइजेशन के लिए मंजूर होता है. वंदे भारत और तेजस जैसी हाई-स्पीड ट्रेनें चलने लगी हैं लेकिन आज तक रेल पैसेंजर्स की बरसों पुरानी चिंता दूर नहीं हुई. आज भी हमें पता नहीं होता कि ट्रेन अपने तय वक्त पर पहुंचेगी या नहीं. आप में से हर किसी ने ट्रेन लेट होने की वजह से कोई न कोई नुकसान जरूर झेला होगा. इसलिए ये कानूनी लड़ाई और इस पर शीर्ष अदालत का फैसला गौर करने लायक है. 2008 से 2021. यानी करीब 13 साल. 13 साल तक चली इस कानूनी लड़ाई में कंज्यूमर को तारीख पर तारीख मिलती रही. लेकिन दाद देनी होगी श्री रमेश चंद्र और कंचन चंद्र जी की कि उन्होंने हार नहीं मानी. रेलवे अदालत दर अदालत चुनौती देता रहा और वो लड़ते रहे. आप कह सकते हैं कि इतने लंबे संघर्ष के बाद मिला क्या? 40,000 हजार रुपए? मुआवजे की ये रकम भले ही छोटी लगे लेकिन ये जीत बहुत बड़ी है क्योंकि ये जीत है सिस्टम के खिलाफ आम आदमी की. ये जीत है हक की जंग में हकदार कंज्यूमर की.
(लेखक ज़ी बिज़नेस हिन्दी डिजिटल के ए़डिटर हैं)
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11:58 AM IST