विदेशों तक में धूम मचा रही है पहाड़ की 'तुलसी', किसानों की बढ़ी आमदनी, रुका पलायन
तुलसी चाय स्वास्थ्य के लिए काफी लाभदायक है. फिलहाल महिलाओं ने तुलसी चाय के तीन ब्रांड बाजार में उतारे हैं.
(संदीप गुसाईं/चमोली गढ़वाल)
पहाड़ों पर जीवन बड़ा ही कठीन होता है. पहाड़ों पर रहने वाले ज्यादातर लोगों की रोजीरोटी पर्यटन पर निर्भर है, क्योंकि खेती-बाड़ी यहां मौसम के भरोसे है और उस पर भी छोटे-छोटे खेतों से बस दो जून की रोटी का ही जुगाड़ हो पाता है. इसलिए केवल कृषि के भरोसे रहकर पहाड़ों पर जीवनयापन बहुत ही मुश्किल भरा है. लेकिन उत्तराखंड में एक इलाका ऐसा भी है, जहां ग्रामीण अर्थव्यवस्था एक नई कहानी बयां करती है.
चमोली जिले की महिलाओं ने राज्य सरकार की मदद का इंतजार नहीं किया बल्कि, हिमालय एक्शन रिसर्च सेंटर के सहयोग से कुछ ऐसा किया कि न सिर्फ महिलाएं अपनी आजीविका बढ़ा रही हैं बल्कि, लोगों को भी उम्मीद की एक किरण दिखा रही है.
चमोली-गढ़वाल के कर्णप्रयाग के पास अलकनंदा घाटी की महिलाओं ने स्वरोजगार की नई मिशाल पेश की है. इन गांवों के लिए हार्क (हिमालयन एक्शन रिसर्च सेंटर) 2006 में वरदान बनकर आया. हार्क ने अलकनंदा घाटी के दर्जनभर गांवों की महिलाओं को ट्रैनिंग देनी शुरु की. महिलाओं को सब्जी, फल और मसाला उत्पादन की ट्रेनिंग दी.
धीरे-धीरे महिलाओं ने अपने समूह तैयार किए लेकिन, बंदर और सूअर खेतों में फसल को तहस-नहस कर देते थे. ऐसे में हार्क ने स्थानीय लोगों से राय-मशविरा कर तुलसी उत्पादन पर जोर देना शुरु कर दिया. तुलसी का उत्पादन शुरु करने के बाद उसे देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक में भेजा जा रहा है और केवल तुलसी चाय ही लाखों रुपये की बिक रही है.
हार्क संस्था के संस्थापक ने कहा कि उन्होनें महिलाओं को तकनीकी सहयोग दिया और भारत सरकार की मदद से कई मशीनें भी उपलब्ध कराई हैं.
अलकनंदा बहुउद्देशीय स्वायत्त सहकारिता
पर्वतीय इलाकों में कई महिला स्वयं सहायता समूह कार्य करते हैं लेकिन, काफी मेहनत करने के बाद भी इनके उत्पाद को बाजार उपलब्ध नहीं हो पाता है. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण स्वयं सहायता समूह का अलग-अलग होना है. अप्रैल, 2009 में हार्क के सहयोग से महिलाओं के कई समूहों को कोओपरेटिव सोसाइटी में बदल दिया गया. कर्णप्रयाग के पास कालेश्वर गांव में सोसाइटी का प्लांट तैयार किया गया. हार्क की मदद से फूड प्रोसेसिंग की कई मशीनें लाई गईं और फिर 80 महिलाओं ने माल्टा, बुरांश, बेल, आवंला, जैम, चटनी सहित कई स्थानीय उत्पाद तैयार करने शुरु कर दिए.
कालेश्वर गांव से शुरु हुआ महिलाओं का एक छोटा समूह अब पूरे चमोली-गढ़वाल में फैल चुका है और इसमें दो हजार से अधिक महिलाएं जुड गई हैं. अलकनंदा बहुउद्देशीय स्वायत्त सहकारिता की कोषाध्यक्ष ऊषा सिमल्टी कहती हैं कि महिलाओं की कोआपरेटिव सोसाइटी से महिलाओं का काफी फायदा हुआ है और बड़ी संख्या में महिलाएं स्वरोजगार से जुड़ रही हैं. ऊषा सिमल्टी कहती हैं कि आसपास के इलाकों में तुलसी की खेती की जा रही है.
ऐसी ही एक महिला किसान जानकी देवी कहती हैं कि पहले वह केवल परंपरागत खेती-बाड़ी करती थीं लेकिन अब वे तुलसी की खेती कर रही हैं तथा सासाइटी से जुड़ कर अन्य काम कर रही हैं, इससे उन्हें महीने में 5-7 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है.
जानवर से भी कोई नुकसान नहीं
अलकनंदा घाटी में तुलसी उत्पादन तेजी से फैल रहा है. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि तुलसी को जानवर नुकसान नहीं पहुंचाते हैं. साथ ही तुलसी उत्पादन के लिए ज्यादा पानी की भी जरुरत नहीं होती है. सबसे अच्छी बात ये है एक बार लगाने पर तुलसी की साल में 2-3 बार फसल ली जा सकती है.
तुलसी चाय स्वास्थ्य के लिए काफी लाभदायक है. फिलहाल महिलाओं ने तुलसी चाय के तीन ब्रांड बाजार में उतारे हैं. अलकनंदा सहकारिता समिति की तुलसी चाय की महक स्वीडन तक पहुंची है और अब फ्रांस से भी आर्डर आ चुका है. इसके अलावा दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई और देहरादून जैसे शहरों से भी लगातार डिमांड आ रही है. समिति अब बदलते बाजार को देखते हुए तुलसी चाय की ऑनलाइन बिक्री की तैयारी कर रही है. तुलसी चाय ही नहीं बल्कि अन्य स्थानीय उत्पाद भी धूम मचा रहे हैं. शुरुआत में मात्र 80 महिलाओं का समूह अब 210 तक पहुंच चुका है और अब इसे 1500 महिलाओं तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है.
15 नए फ्लेवर में तुलसी टी
वर्तमान में तुलसी चाय केवल तीन फ्लेवर में तैयार की जा रही है जिसमें, तुलसी जिंजर टी, तुलसी ग्रीन टी और तुलसी तेजपत्ता टी प्रमुख हैं. चमोली-गढ़वाल के 5 ब्लॉक जोशीमठ, पोखरी, घाट, कर्णप्रयाग और गैरसैंण में तुलसी की खेती की जा रही है. यहां करीब 400 किसान ही एक नाली में तुलसी की खेती कर रहे हैं. लगातार बढ़ रही डिमांड के बाद अब इसका उत्पादन और बढ़ाने की तैयारी की जा रही है. अब करीब एक हजार नए काश्तकारों से तुलसी का उत्पादन कराने का लक्ष्य है.
समिति की कोषाध्यक्ष ऊषा सिमल्टी ने बताया कि तुलसी चाय के अभी केवल 3 फ्लेवर बाजार में उपलब्ध हैं जिन्हें बढ़ाकर 15 फ्लेवर तक किया जाएगा. चाय के अलावा तुलसी कैप्सूल और तुलसी डीप टी भी तैयार की जाएगी. समिति के प्रोग्राम मैनेजर गणेश उनियाल ने बताया कि तुलसी टी की डिमांड काफी बढ़ रही है और अभी काश्तकारों से केवल एक नाली भूमि पर इसकी खेती कराई जा रही है लेकिन अब इसे और बढ़ाया जाएगा. उन्होंने बताया कि तुलसी का उत्पादन बंजर भूमि में हो जाता है और इसकी देखभाल भी नहीं करनी पड़ती.
पलायन रोकने और आमदनी बढ़ाने में मददगार
पहाड़ों पर रोजगार के स्थाई साधन नहीं होने के कारण यहां पलायन जारी रहता है. पर्वतीय इलाकों में अधिकर कृषि बारिश पर निर्भर है. सिंचाई की कमी के कारण कई फसलें पर्वतीय इलाकों में खराब हो जाती हैं और जो बचती हैं उन्हें जंगली सूअर, बंदर बर्बाद कर देते हैं. कृषि विशेषज्ञ और हार्क संस्था के संस्थापक डां महेन्द्र कुंवर ने बताया कि तुलसी की खेती में इस तरह की कोई समस्या नहीं है. तुलसी यहां के किसानों के लिए रामबाण है. तुलसी ने यहां के लोगों को रोजगार का एक नया जरिया दिया है, जिससे पलायन पर काफी हद तक अंकुश लगा है.
समिति में हर महिला शेयर धारक
अलकनंदा स्वायत्त सहकारिता समिति में करीब 400 महिला सदस्य हैं जो शेयरधारक भी हैं. हर पांच साल में समिति का चुनाव कराया जाता है. पिछले वित्तीय वर्ष में समिति का सालाना टर्नओवर करीब पौने दो करोड़ रुपये था. समिति जो मुनाफा कमाती है उसे सभी महिलाओं में बांटा जाता है जो इसकी शेयरधारक हैं. केवल तुलसी टी ही नहीं बल्कि माल्टा, बुरांश और आवंला का स्कैश, जैम, अचार यहां तैयार किए जाते हैं. गर्मियों के समय तो बुरांश और माल्टा का जूस काफी बिकता है. पूरे उत्तराखंड में इसके आऊटलेट हैं.