कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि देश में किसानों की आय विशेषकर छोटे कृषकों की आय बढ़ाने के लिये वर्षा निर्भर खेती में विविधता लाने और उपज के विपणन की समुचित व्यवस्था करना जरूरी है. राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण (एनआरएए) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) डॉ अशोक दलवई ने दावा किया कि वर्षा सिंचित क्षेत्र की संभावनाओं को बढ़ाकर कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर को सात से आठ प्रतिशत किया जा सकता है. यह अभी तीन से चार प्रतिशत है.  

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दलवई किसानों की आय को दोगुना करने से संबंधित समिति के अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने कहा कि देश में 65 प्रतिशत छोटा किसान है जो खेती के लिए वर्षा जल पर निर्भर हैं.  ऐसे किसानों के लिए फसल के विपणन की उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण उन्हें अपनी उपज को औने पौने दाम पर बेचना पड़ता है.  

उन्होंने कहा कि सरकार का ध्यान केवल बड़ी फसलों और बड़े किसानों पर उनकी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करने और उन्हें बैंकों से सस्ता कर्ज उपलब्ध कराने पर ही होता है. लेकिन जब तक छोटे किसानों के लिए खेती में विविधता तथा उनकी उपज के विपणन की समुचित व्यवस्था नहीं होगी, खेती करने वालों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य हासिल करना मुश्किल होगा.  

उन्होंने कहा, ‘‘हरित क्रांति के दौर के बाद पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे क्षेत्रों में भी उत्पादन में अब ठहराव की स्थिति आ गई है.  इन जगहों के किसान चावल और गेहूं जैसी दो फसलों ही पर विशेष ध्यान देते हैं. ’’

उन्होंने कहा कि वर्षा सिंचित क्षेत्र में फसलों के विविधीकरण की असीम संभावनायें छुपी हैं. दलवई ने कहा कि इन क्षेत्रों में पहले से ही जैव विविधता मौजूद है और किसान रागी, ज्वार, बाजरा, मक्का और मोटे अनाज जैसे अन्य पोषक अनाज पैदा कर रहे हैं.  दूसरी तरफ पंजाब और हरियाणा जैसी हरित क्रांति के गढ़ में किसान दो मुख्य फसल (गेहूं और चावल) ले रहे हैं.  इन जगहों पर भारी मात्रा में उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल के कारण मिट्टी के सूक्ष्म जीव जन्तु खत्म हो रहे हैं जो मृदा को बंजर बना रहे हैं.  इस भूमि को फिर उपजाऊ करना बेहद जरूरी है और यह वर्षा सिंचित क्षेत्र में होने वाली खेती के तौर तरीकों से ही संभव है.

‘गैर सरकारी संस्था- रीवाइटलाइजिंग रेनफेड एग्रीकल्चर नेटवर्क’ (आरआरए-एन) के राष्ट्रीय समन्वयक सब्ससाची दास ने बताया, ‘‘हरित क्रांति के दौर में संकर फसलों से उत्पादकता तो बढ़ी पर इसके पेड़ पशुओं के चारे के लिए उपयुक्त नहीं होते जिससे पशुपालन भी प्रभावित हुआ है.  दास ने कहा कि वर्षा सिंचित क्षेत्र में मोटे अनाजों के उत्पादन से पशुओं के चारे की स्थिति भी कहीं बेहतर होगी. ’’

राजधानी दिल्ली में आरआरए-एन ने राष्ट्रीय वर्षा क्षेत्र प्राधिकरण (एनआरएए), कृषि मंत्रालय और राष्ट्रीय कृषि विस्तार प्रबंधन संस्थान (मैनेज) के सहयोग से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) में दो दिन के राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया था जिसमें वर्षा आधारित खेती से जुड़े मुद्दों पर चर्चा, उस पर आम सहमति बनाने, केन्द्र तथा राज्य स्तर पर नीतियां और कार्यक्रम बनाने तथा वर्षा सिंचित क्षेत्र की खेती को पुनर्जीवित करने के बारे में देश भर से आये कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों ने विचार मंथन किया.

राष्ट्रीय वर्षा क्षेत्र प्राधिकरण (एनआरएए) के अनुसार भारत के 593 जिलों में से 499 जिलों में बारिश होती है और खाद्य उत्पादन में वर्षा सिंचित क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान है.  देश में 89 प्रतिशत ज्वार- बाजरा-जौ, 88 प्रतिशत दलहन, 73 प्रतिशत कपास, 69 प्रतिशत तेल बीज और 40 प्रतिशत चावल का उत्पादन वर्षा सिंचित खेतों में होता है.  इसी क्षेत्र में 64 प्रतिशत मवेशी, 74 प्रतिशत भेड़ और 78 प्रतिशत बकरियां हैं जो भारत में खाद्य सुरक्षा और पोषण के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं.  

देश में 8.6 करोड़ हेक्टेयर का रकबा वर्षा जल सिंचाई पर निर्भर है. वर्ष 2003-04 से वर्ष 2012-13 के बीच चावल और गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद के लिए 5,40,000 करोड़ रुपये खर्च किये गये जबकि वर्षा आधारित मोटे अनाज, बाजरा और दालों जैसी फसलों पर इसी अवधि के दौरान 3,200 करोड़ रुपये का सरकारी खर्च किया गया. वर्ष 2010-11 और वर्ष 2013-14 के बीच उर्वरक सब्सिडी के बतौर 2,16,400 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई जबकि समान अवधि के दौरान वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम पर मात्र 65,600 करोड़ रुपये खर्च किये गये.