चुनावी बॉन्ड से किस तरह चंदा बटोरती हैं BJP-कांग्रेस जैसी पार्टियां, कैसे सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है ये योजना? पढ़ें
What are Electoral Bonds: चुनावी बॉन्ड होते क्या हैं और इनसे कैसे सूचना के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है? कैसे काम करता है इलेक्टोरल बॉन्ड? आइए जानते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार चुनावी बॉन्ड पर अपना फैसला सुना दिया है. राजनीतिक पार्टियों के लिए चंदे के बड़े जरिया बने इलेक्टोरल बॉन्ड को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की अध्यक्षता वाली जजों की बेंच ने गुरुवार को रद्द कर दिया और कहा कि ये असंवैधानिक है क्योंकि ये सूचना के अधिकार के साथ-साथ बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है. चुनावी पार्टियों खासकर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए ये बड़ा झटका है, क्योंकि इसी पार्टी को पिछले आंकड़ों के मुताबिक सबसे ज्यादा डोनेशन मिला था. लेकिन चुनावी बॉन्ड होते क्या हैं और इनसे कैसे सूचना के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है? कैसे काम करता है इलेक्टोरल बॉन्ड? आइए जानते हैं.
क्या होते हैं चुनावी बॉन्ड?
चुनावी बॉन्ड योजना को सरकार ने दो जनवरी 2018 को अधिसूचित किया था. चुनावी बॉन्ड की पेशकश साल 2017 में फाइनेंशियल बिल के साथ की गई थी. 29 जनवरी, 2018 को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में NDA गवर्नमेंट ने चुनावी बॉन्ड स्कीम 2018 को अधिसूचित किया था. इसे पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता लाने के प्रयासों के तहत राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले दान के विकल्प के रूप में पेश किया गया था. योजना के प्रावधानों के अनुसार चुनावी बॉन्ड भारत के किसी भी नागरिक या देश में निगमित या स्थापित इकाई द्वारा खरीदा जा सकता है. कोई भी व्यक्ति अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त रूप से चुनावी बॉन्ड खरीद सकता है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के अनुसार इसमें बॉन्ड के खरीदार या भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता है, स्वामित्व की कोई जानकारी दर्ज नहीं की जाती और इसमें धारक (यानी राजनीतिक दल) को इसका मालिक माना जाता है. राजनीतिक पार्टियों को चुनाव आयोग में सलाना चंदे का विवरण जमा करने के दौरान बॉन्ड के जरिये चंदा देने वाले का नाम व पता देने की जरूरत नहीं होती है।
राजनीतिक पार्टियों को कितनी मिली फंडिंग?
भाजपा को 2022-23 में चुनावी बॉन्ड के माध्यम से लगभग 1300 करोड़ रुपये मिले. यह राशि इसी अवधि में इस माध्यम (चुनावी बॉन्ड) से विपक्षी दल कांग्रेस को प्राप्त धनराशि से सात गुना अधिक है. निर्वाचन आयोग को सौंपी गई पार्टी की वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2022-23 में भाजपा को कुल 2120 करोड़ रुपये मिले जिसमें से 61 प्रतिशत चुनावी बॉन्ड से प्राप्त हुए. वित्त वर्ष 2021-22 में पार्टी को कुल 1775 करोड़ रुपये का चंदा प्राप्त हुआ था. वर्ष 2022-23 में पार्टी की कुल आय 2360.8 करोड़ रुपये रही, जो वित्त वर्ष 2021-22 में 1917 करोड़ रुपये थी. दूसरी ओर, कांग्रेस को चुनावी बॉन्ड के जरिये 171 करोड़ रुपये की आय हुई, जो वित्त वर्ष 2021-22 में 236 करोड़ रुपये से कम थी.
कैसे होती है फंडिंग?
ये बॉन्ड 1,000 रुपए के मल्टीपल में पेश किए जाते हैं जैसे कि 1,000, ₹10,000, ₹100,000 और ₹1 करोड़ के हो सकते हैं. ये SBI की कुछ शाखाओं पर मिल जाते हैं. कोई भी दानकर्ता KYC की शर्तों को पूरा करते हुए बॉन्ड को खरीद सकता है और बाद में इन्हें किसी भी राजनीतिक पार्टी को डोनेट कर सकता है. इसके बाद वो पार्टी इसे कैश में भुना सकती है, जोकि वेरिफाईड अकाउंट से ही होता है. लेकिन इसे खरीदने के 15 दिनों के भीतर भुनाना होता है. ये बॉन्ड 15 दिनों के लिए वैध होते हैं. मौजूदा समय में व्यक्ति (कंपनियों के लिए) के लिए बॉन्ड खरीदने की कोई सीमा नहीं है. राजनीतिक दल द्वारा 15 दिनों में बॉन्ड को नहीं भुनाने की स्थिति में राशि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राहत कोष में जमा हो जाती है.
क्यों था चुनावी बॉन्ड पर विवाद?
यूं तो राजनीतिक पार्टियों को 20,000 रुपये से ज्यादा का दान देने वालों के नाम की घोषणा करनी होती, लेकिन चुनावी बॉन्ड के नियमों में ऐसा प्रावधान रखा गया कि चाहे दान की राशि कितनी बड़ी हो, पार्टी को दानकर्ता का नाम दिखाने की जरूरत नहीं होगी. ADR की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाली फंडिंग में से 56 फीसदी चंदा चुनावी बॉन्ड के रास्ते से ही आता है, और कितना चंदा, कहां से आ रहा है, इसकी कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं है. ऐसे में गुमनाम तरीके से करोड़ों का चंदा देने की सुविधा और नाम उजागर करने की शर्तों से परे चुनावी बॉन्ड अलोकतांत्रिक प्रवृति के लगते हैं और भ्रष्टाचार का रास्ता खोलने की क्षमता रखते हैं.
चुनावी बॉन्ड के नियमों में कई शर्तों को हटा दिया गया था. इसमें कॉरपोरेट डोनेशन को शर्तों से बाहर कर दिया गया था. कंपनियों ने कितना दान दिया है, इसकी कोई जानकारी देने की शर्त भी हटा दी गई थी. विदेशी कंपनियां भी अपनी भारत में अनुषंगी कंपनियों के जरिए इसमें पैसा डाल सकती हैं. इससे पता नहीं चलता कि कहां से कितना पैसा आ रहा है, कौन पैसा दे रहा है, किसको मिल रहा है. आलोचकों का कहना था कि इससे चुनावी वित्तपोषण में पारदर्शिता समाप्त होती है और सत्तारूढ़ दल को फायदा होता है, इसलिए इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं फाइल की गई थीं.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूरगामी परिणाम वाला ऐतिहासिक फैसला है. कोर्ट ने कहा कि ये योजना असंवैधानिक है क्योंकि नागरिकों की निजता के मौलिक अधिकार में राजनीतिक गोपनीयता, संबद्धता का अधिकार भी शामिल है. फैसले में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम और आयकर कानूनों सहित विभिन्न कानूनों में किए गए संशोधनों को भी अवैध ठहराया गया.
कोर्ट ने भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) को छह वर्ष पुरानी योजना में दान देने वालों के नामों की जानकारी निर्वाचन आयोग को देने के निर्देश दिए हैं. इसमें कहा गया कि जानकारी में यह भी शामिल होना चाहिए कि किस तारीख को यह बॉन्ड भुनाया गया और इसकी राशि कितनी थी. साथ ही पूरा विवरण छह मार्च तक निर्वाचन आयोग के समक्ष पेश किया जाना चाहिए. और चुनाव आयोग को इस जानकारी को 13 मार्च तक अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करनी चाहिए.