पिछले कुछ सालों में गिग वर्कर (Gig Worker) का कल्चर काफी बढ़ चुका है. शुरुआत में तो सिर्फ कैब ड्राइवर और डिलीवरी ब्वॉय जैसे गिग वर्कर ही थे, लेकिन आज के वक्त में कई तरह की स्किल वाले गिग वर्कर्स की डिमांड आने लगी है. आज के वक्त में जब हर प्रॉब्लम का सॉल्यूशन निकालने के लिए एक स्टार्टअप (Startup) है, तो गिग वर्कर्स से जुड़ा हुआ भी एक स्टार्टअप है. इस स्टार्टअप का नाम है पिकमाईवर्क (PickMyWork), जो गिग वर्कर्स को काम मुहैया कराता है. आइए जानते हैं कैसे ये प्लेटफॉर्म गिग वर्कर्स की मदद कर रहा है और साथ ही कैसे कंपनियों की भी मदद हो रही है.

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पिकमाईवर्क की शुरुआत 25 जून 2017 को गुरुग्राम में रहने वाले विद्यार्थी बद्दीरेड्डी और काजल मलिक ने की थी. दोनों की मुलाकात दिल्ली के एफएमएस कॉलेज में एमबीए के दौरान हुई थी. वहीं से दोनों के मन में बेरोजगार लोगों के लिए एक स्टार्टअप शुरू करने का आइडिया आया, जो आज 120 शहरों के करीब 8000 पिन कोड तक पहुंच चुका है और इसका टर्नओवर लगभग 4 करोड़ रुपये हो गया है. जब विद्यार्थी और काजल एमबीए कर रहे थे, उस वक्त वह कॉलेज की प्लेसमेंट टीम में थे. दोनों ने देखा कि स्टूडेंट्स के प्लेसमेंट को मैनेज करने के लिए कोई टेक्नोलॉजी नहीं है. उन्हें लगा कि एक ऐसा सॉफ्टवेयर होना चाहिए जो कॉलेज और कंपनी दोनों के लिए ही प्लेसमेंट का काम आसान कर सके. 

2017 से शुरू हुआ बिजनेस का सफर

साल 2017 में दोनों ने मिलकर एक कॉलेज कैंपस प्लेसमेंट का सॉफ्टवेयर शुरू किया. उसी पर वह धीरे-धीरे काम करते रहे और 2020 तक उनसे कई आईआईएम, आईआईटी जैसे बड़े इंस्टीट्यूट जुड़ गए. जब उन्होंने टीयर-2 और टीयर-3 शहरों में कदम रखा तो उन्हें पता चला कि वहां तो प्लेसमेंट के लिए कंपनियां ही इक्का-दुक्का आती है और अधिकतर स्टूडेंट बेरोजगार ही रह जाते हैं. यहां से विद्यार्थी और काजल के मन में ये बात आ गई थी कि इन बेरोजगार लोगों के लिए भी कुछ करना है. इसके बाद दोनों ने 2019 में गिग वर्किंग प्लेटफॉर्म पिकमाईवर्क शुरू किया. विद्यार्थी बताते हैं कि साल 2020 तक दोनों का फोकस पिकमाईवर्क की ओर शिफ्ट हो गया, क्योंकि प्लेसमेंट तो कुछ ही लोगों का होता है, लेकिन अधिकतर लोग बेरोजगार ही रह जाते हैं. दोनों ने पिकमाईवर्क को कुछ ऐसे डिजाइन किया कि इससे कंपनियों को भी फायदा हो और लोगों को भी. इस प्लेटफॉर्म के जरिए वह लोगों को नौकरी नहीं मुहैया कराते हैं, बल्कि रोजगार मुहैया कराते हैं. 

कैसे काम करता है पिकमाईवर्क?

पिकमाईवर्क प्लेटफॉर्म पर कंपनी बहुत सारे काम लिस्ट करती है. इसमें कोई काम दुकानों में क्यूआर कोड लगाने का हो सकता है तो कोई काम लोन, इंश्योरेंस या क्रेडिट कार्ड बेचने का हो सकता है. जो व्यक्ति जितने टास्क पूरे करता है, उसे उसी हिसाब से पैसे मिल जाते हैं. जैसे पेटीएम, गूगल, फ्लिपकार्ट सबको चाहिए होता है कि उनके सॉफ्टवेयर, क्यूआर कोड दुकानों पर इस्तेमाल हों. ऐसे में अगर दुकान वाले खुद ये करना चाहे तो तमाम टेक्निकल दिक्कतों के चलते वह ऐसा नहीं कर पाते हैं. वहीं ऐसे में कंपनियों को ये काम करने के लिए लोग चाहिए होते हैं. यानी ऐसे लोग, जिनमें कुछ स्किल्स हों और वह इस तरह का काम कर सकें. 

कंपनी को भी फायदा, गिग वर्कर को भी

विद्यार्थी कहते हैं कि इससे कंपनी को ये फायदा है कि उसे अगर 50 शहरों में एक साथ कोई फैसिलिटी लॉन्च करनी है तो उसे इसके लिए लोग हायर करने की जरूरत नहीं होती है. ना ही उस कंपनी को कोई ऑफिस खोलना पड़ता है और ना ही काम खत्म होने पर लोगों को नौकरी से निकालने की जरूरत होती है. वहीं गिग वर्कर को ये फायदा होता है कि वह अपने टाइम के हिसाब से काम कर सकता है और अपने टैलेंट के हिसाब से काम चुन सकता है. इतना ही नहीं, एक गिग वर्कर एक साथ कई प्रोजेक्ट पर काम कर सकता है. 

मुमकिन है कि अलग-अलग प्रोजेक्ट के लिए टारगेट कस्टमर एक ही हो, तो उसकी ज्यादा कमाई हो जाती है. जैसे एक दुकानदार के पास क्यू-आर कोड लगाना, उसे बिजनेस लोन देना, इंश्योरेंस देना, क्रेडिट कार्ड देना और उसे किसी ई-कॉमर्स साइट पर लिंक करना, ये सारे प्रोजेक्ट तो अलग-अलग हैं, लेकिन एक ही दुकानदार इन सबका टारगेट कस्टमर है. विद्यार्थी बताते हैं कि जहां एक ओर किसी नौकरी में शुरुआती लेवल पर एक सेल्स वाले को 15-20 हजार रुपये महीने मिलते हैं, वहीं एक गिग वर्कर हर रोज से 1200-1500 रुपये तक कमा सकता है. यानी वह शख्स महीने के 30-45 हजार रुपये तक कमा सकता है. साथ ही यहां काम बिना किसी टारगेट के और बिना किसी प्रेशर के किया जा सकता है, जबकि नौकरी में ये सब झेलना पड़ता है.

कैसे होती है कंपनी की कमाई?

टास्क पूरा होने पर कंपनी की तरफ से पिकमाईवर्क को पैसे आते हैं और उसमें से अपना कट रखने के बाद बाकी सारे पैसे गिग वर्कर को दे दिए जाते हैं. पिकमाईवर्क गिग वर्कर्स से कोई पैसा चार्ज नहीं करती है. ना ही उन्हें कोई डिपॉजिट करना होता है, ना ही कोई ज्वाइनिंग फीस देनी होती है और ना ही किसी ट्रेनिंग के लिए कोई चार्ज चुकाना पड़ता है. यानी गिग वर्कर्स के लिए यह प्लेटफॉर्म पूरी तरह से मुफ्त है. पिकमाईवर्क के तहत मिलने वाले काम में 90 फीसदी काम फील्ड वर्क होता है, जबकि सिर्फ 10 फीसदी ही वर्क फ्रॉम होम होता है.

चुनौतियां भी कम नहीं

विद्यार्थी और काजल कहते हैं कि गिग वर्कर्स की डिमांड तो है, लेकिन इसमें कुछ चुनौतियां भी हैं. सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि उन्होंने टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर के ऐप भी बना दिया और ट्रेनिंग सेशन भी बना दिए, लेकिन उसे देखकर काम कर लेना आसान नहीं होता. ऐसे में जो लोग टेक्नोलॉजी का बहुत कम इस्तेमाल करते हैं, उनके लिए ट्रेनिंग सेशन देखकर का करना थोड़ा मुश्किल होता है. एक बड़ी चुनौती ये भी है कि बहुत सारे लोग पिकमाईवर्क को एक ट्रेनिंग प्लेटफॉर्म की तरह इस्तेमाल करते हैं. वह यहां से काम सीखते हैं और फिर किसी कंपनी में जाकर पिकमाईवर्क का अनुभव दिखाकर फुल टाइम जॉब हासिल कर लेते हैं.

महिलाएं हैं बेहतर गिग वर्कर

काजल बताती हैं कि पिकमाईवर्क के प्लेटफॉर्म से महिला गिग वर्कर पुरुष गिग वर्कर की तुलना में औसतन डेढ़ से दो गुना अधिक कमाती हैं. हालांकि, इस प्लेटफॉर्म पर महिलाओं की भागीदारी अभी सिर्फ 17 फीसदी ही है, क्योंकि यहां फील्ड वर्क अधिक होता है. ऐसे में सिर्फ वही महिलाएं इससे जुड़ पाती हैं, जो अपने घर के आस-पास ही काम कर पाएं. हालांकि, काजल कहती हैं कि इस प्लेटफॉर्म पर रुकने की दर भी महिलाओं की ही ज्यादा है. एक पुरुष की तुलना में एक महिला करीब डेढ़ गुना अधिक वक्त तक पिकमाईवर्क के साथ जुड़ी रहती है और मन लगाकर काम करती है.

फंडिंग और फ्यूचर प्लान

पिकमाई वर्क ने करीब दो साल पहले लगभग 8 करोड़ रुपये की फंडिंग उठाई थी. उन्हें एक छोटा सा ग्रांट भी मिल चुका है. विद्यार्थी बताते हैं कि अपने इस प्लेटफॉर्म के जरिए वह अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना चाहते हैं. इसके लिए वह हर तरीके का इस्तेमाल कर रहे हैं. अपने बिजनेस को बढ़ाने के लिए वह ग्रांट या फंडिंग जो भी जरिया मिलेगा, उससे आगे की ओर बढ़ेंगे.