Tax For Development for Nation: ''मेरा टैक्स देश के विकास के लिए है, मुफ्त बांटने के लिए नहीं.'' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में लगातार तीसरी बार NDA सरकार बनने के बाद सोशल मीडिया पर एक बार फिर यह ट्रेंड हो रहा है. चुनाव से पहले हर राजनीतिक पार्टी अपने घोषण-पत्र में तमाम चीजें या सेवाएं मुफ्त देने का वादा करती है. चुनाव बाद अगर वह पार्टी सत्ता में आती है, तो उसे अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए लाखों-करोड़ रुपये इन मुफ्त स्कीम्स पर खर्च करने पड़ते हैं. यह देश के टैक्सपेयर्स का पैसा होता है, न कि राजनीतिक पार्टियां निजी तौर पर इसके लिए फंडिंग करती है. ऐसे में अब टैक्सपेयर्स सोशल मीडिया के जरिए अपनी नाराजगी जता रहे हैं. 

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हाल ही में लोकसभा चुनाव हुए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में लगातार तीसरी बार NDA की सरकार बनी. इस बार BJP अपने दम पर 272 का बहुमत आंकड़ा नहीं हासिल कर पाई और वह 240 सीटों तक सिमट गई. NDA के दो बड़े घटक दल तेलगु देशम पार्टी (TDP) और जनता दल (यूनाइटेड) हैं. चुनाव से पहले इन पार्टियों ने भी घोषणा-पत्र जारी किये, जिनमें कई मुफ्त स्कीम्स का वादा किया है, जिन्‍हें पूरा करने पर सालाना करोड़ों रुपये खर्च होंगे. यह भी बता दें कि लोकसभा चुनाव के साथ-साथ आंध्र प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए थे, जिसमें TDP की अगुवाई में बीजेपी और जन सेना पार्टी के गठंबधन ने प्रचंड जीत के साथ सत्‍ता में वापसी की है. इस विधानसभा चुनाव के लिए NDA की ओर से एक संयुक्त घोषणा पत्र जारी किया, जिसमें कई फ्री चीजों का ऐलान किया गया. 

सरकार चलाने की जिम्मेदारी संभाल रही पार्टियों की यह अहम जिम्मेदारी है कि वो टैक्सपेयर्स का पैसा देश के विकास के लिए लगाएं, न क‍ि मुफ्त में बांटने के लिए खर्च करें. भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने लोकसभा चुनाव से पहले अपने 'संकल्प-पत्र' में फ्री अनाज स्‍कीम, मुफ्त बिजली स्कीम से लेकर कई वादे किए थे. 

BJP के संकल्प-पत्र में क्या है फ्री? 

मौजूदा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने अपने संकल्प-पत्र (चुनावी घोषणा-पत्र) में कई बड़े ऐलान किए, जिनमें मुफ्त स्कीम्स भी शामिल हैं. बीजेपी ने अगले 5 साल के लिए फ्री राशन स्‍कीम को जारी रखने का ऐलान किया है. कोरोना महामारी के दौरान साल 2020 में इस स्‍कीम को शुरू किया गया था. आयुष्‍मान भारत योजना के अंतर्गत 5 लाख रुपये मुफ्त इलाज का दायरा बढ़ाने के साथ-साथ जनऔषधि केंद्रों पर 80 फीसदी डिस्‍काउंट के साथ दवाइयां उपलब्‍ध कराने का वादा है. साथ ही 70 साल से ऊपर का हर बुजुर्ग, चाहे वो गरीब हो, मध्यम वर्ग का हो या फिर उच्च मध्यम वर्ग से ही क्यों न हो, उन्हें 5 लाख रुपये तक के मुफ्त इलाज की सुविधा मिलेगी. 

उज्‍ज्‍वला स्कीम में अब पाइप के माध्‍यम से घर-घर तक सस्‍ती रसोई गैस पहुंचाई जाएगी. 3 करोड़ परिवारों को पक्‍का घर दिया जाएगा. इसके अलावा, पीएम सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना में सोलर के जरिए 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने की बात कही गई है. यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि इनमें कुछ स्कीम्स को सोशल सिक्युरिटी के नजरिए से देखा जा सकता है लेकिन कई स्कीम्स को फ्री की बजाय वाजिब कीमतों पर उपलब्ध कराया जा सकता है. 

आंध्र में NDA के घोषणा-पत्र में क्या फ्री?

आंध्र प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले NDA के घोषणा-पत्र को देखें तो उसमें भी कई फ्री स्कीम्स के ऐलान हुए. मसलन TDP, जन सेना और BJP गठबंधन ने बेरोजगार युवाओं को हर महीने 3000 रुपये की आर्थिक सहायता का वादा किया है. NDA ने अपने मेनिफेस्टो को 'प्रजा गलम' नाम दिया था. 

NDA का यह मेनिफेस्टो TDP के 'सुपर सिक्स' और उनकी पार्टी के 'शन्मुख व्यूहम' का एक कंसॉलिडेशन है. TDP की 'सुपर सिक्स' घोषणा में महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा, सालाना हर घर में तीन मुफ्त रसोई गैस सिलेंडर और स्कूल जाने वाले हरेक बच्चे को 15,000 रुपये सालाना देने का वादा किया गया है. 

दरअसल, जब भी सोशल सिक्युरिटी की बात करते हैं, तो आमतौर पर हम विकसित देशों से तुलना करते हैं, जबकि टैक्सपेयर्स की संख्या के हिसाब से देखें तो भारत में यह संख्या करीब 1 फीसदी है. जबकि विकसित देशों में 40 फीसदी के आसपास या उससे भी ज्यादा है.

मुफ्त स्कीम्स पर क्या कहते हैं एक्सपर्ट 

ग्लोबल टैक्सपेयर्स ट्रस्ट के चेयरमैन मनीष खेमका कहते हैं, हर बार की तरह इस लोकसभा चुनाव में भी यह बात स्पष्ट है कि मुफ्तखोरी अब एक राष्ट्रीय बीमारी या कहें महामारी का रूप ले रही है. लोकतंत्र का यह सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है जिसे तत्काल बंद किया जाना जरूरी है. समय के साथ राजनीतिक पार्टियों ने मुफ्त ऐलान का तरीका भी बदल लिया है. पहले प्रत्याशी अपनी जेब से पैसा-शराब बांटकर चुनाव जीतने का प्रयास करते थे. आजकल राजनीतिक दल मेहनतकश करदाताओं की गाढ़ी कमाई को लुटा कर सत्ता हासिल करने की कोशिश करते हैं. मतदाताओं को तमाम प्रकार के मुफ्त प्रलोभनों की घोषणा पार्टियां विधिवत अपने घोषणा पत्र में करती हैं. 

उनका कहना है, इसके लिए संविधान में संशोधन करके सभी राजनीतिक दलों के लिए समान और जवाबदेह नियम और कायदे-कानून बनाने चाहिए. सरकारी खर्च यदि संसाधनों के अनुरूप हो और गरीबों को सहारा देकर उत्पादकता बढ़ाने वाला हो तो ठीक है, अन्यथा मुफ्त उपहारों को सख्ती से बंद किया जाना चाहिए. 

खेमका कहते हैं, आमतौर पर हम सोशल सिक्युरिटी की बात करते हैं और उसकी उसकी तुलना विकसित देशों से करते हैं. लेकिन, इसमें हमें एक फैक्ट यह भी देखना चाहिए कि विकसित देशों के मुकाबले हमारे यहां टैक्सपेयर्स की संख्या कितनी है. भारत में डायरेक्ट टैक्सपेयर्स की संख्या करीब 1 फीसदी है. उसमें आधे से ज्यादा टैक्स फाइलर हैं. दूसरी ओर हम अमेरिका की बात करें तो वहां डायरेक्ट टैक्सपेयर्स की संख्या 40-50 फीसदी के आसपास है.   

मनीष खेमका ने कुछ मुफ्त चुनावी ऐलान का जिक्र करते हुए कहते हैं, यूपी में युवाओं को बेरोजगारी भत्ता और मुफ्त लैपटॉप के वायदे पर सरकार बनते हम लोगों ने देखा है. तमिलनाडु की मुफ्तखोरी से हताश होकर मद्रास हाईकोर्ट ने अप्रैल 2021 में वहां के नेताओं और मतदाताओं पर तल्ख टिप्पणी कर कहा कि “मुफ्तखोरी ने तमिलनाडु के लोगों को नकारा बना दिया है”. जस्टिस एन किरूबाकरन व बी पुगालेन्थी ने राजनीति के इस रवैये पर दुख जताते हुए कहा कि ऐसे मुफ्त उपहारों को भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में लाया जाना चाहिए क्योंकि इससे मतदाताओं को प्रभावित कर चुनावों की शुचिता का उल्लंघन होता है. 

ध्यान देने वाली बात है कि आजादी के 75 साल के बाद भी भारत के डायरेक्ट टैक्स रेवेन्यू में करीब 98 फीसदी नागरिकों का कोई कंट्रीब्यूशन नहीं है. जबकि विकसित देशों में आमतौर पर 50 फीसदी से ज्यादा नागरिक इनकम टैक्स देते हैं.  

मुफ्त स्कीम्स पर क्या कहते हैं पूर्व वित्त सचिव

भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग का कहना है, देश का केंद्र सरकार के लेवल पर बजट का 50-60 फीसदी पैसा टैक्स और बाकी विनिवेश व नॉन टैक्स इनकम से आता है. सरकार करीब 40 फीसदी कर्ज लेकर खर्च करती है. मोटे तौर पर केंद्र सरकार के बजट का 50 फीसदी टैक्सपेयर्स देते और बाकी 50 फीसदी नॉन-टैक्स रेवेन्‍यू से आता है. टैक्सपेयर्स ही सारा खर्च उठाते हैं, ये गलत हैं. हमें पब्लिक फाइनेंस की व्यवस्था को समझना चाहिए.

पब्लिक फाइनेंस की व्यवस्था में पब्लिक गुड्स एंड सर्विसेज जैसेकि डिफेंस, लॉ एंड ऑर्डर, हेल्थ एजुकेशन इन सब चाजों के लिए टैक्सपेयर्स से टैक्स लिया जाता है. यानी, पब्लिक फाइनेंस एंड सर्विसेज के लिए पैसा टैक्सपेयर्स से लिया जाता है. पब्लिक फाइनेंस की थ्योरी यह कहती है. इसकी एवज में यह सुविधाएं अनको मिलती हैं. इसलिए यह खयाल की फ्री पर सब खर्च होता है, ये गलत है. 

 

सुभाष चंद्र गर्ग कहते हैं,  फ्रीबीज यानी मुफ्त स्कीम्स वो हैं जिसका फायदा अनडिजर्व यानी अपात्र लोगों को मिलता है. वो गलत है. गरीब या बेरोजगार या नरेगा में मजदूरों को भुगतान करना, ये फ्रीबीज नहीं है. लेकिन अगर सरकार उन लोगों को भी फ्री बिजली, पीएम किसान, फ्री खाना आदि की सुविधा देती है, जो इन चीजों के लिए खर्च उठा सकते हैं, वो फ्रीबीज हैं. जैसेकि पीएम किसान में तमाम ऐसे किसान हैं, जिनको इस सब्सिडी की जरूरत नहीं हैं. इसी तरह 90 फीसदी तक खाद सब्सिडी का फायदा उन किसानों को भी मिल रहा है, जो गरीब किसान नहीं हैं. 

मोटे तौर पर मुफ्त स्कीम्स पर खर्चा करीब 4-5 लाख करोड़ रुपये के आसपास है. भारत सरकार का बजट 45 लाख करोड़ रुपये है. तो यह 10 फीसदी से कम है. टैक्सपेयर्स से करीब 25 लाख करोड़ रुपये टैक्स से आते हैं, जो कि मुफ्त स्कीम्स का करीब 20 फीसदी से कम है. ऐसे में टैक्सपेयर्स को यह भी गहतफहमी है कि उनका ज्यादा पैसा मुफ्त स्कीम्स में जाता है. टैक्सपेयर्स 50 फीसदी ही भारत सरकार का बजट उठाते हैं. इस तरह मुफ्त स्कीम्स का बजट 15-20 फीसदी से ज्यादा नहीं है. पब्लिक फाइनेंस में यह कभी भी कैटेगराइज नहीं है. इसलिए इस तरह का कैम्पेन सही नहीं हैं.