आधुनिक भारत में स्वामी विवेकानंद उन लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने देश की समस्याओं पर नए सिरे से विचार-चिंतन किया. स्वामी विवेकानंद के विचारों ने समाज-जीवन के प्रत्येक्ष क्षेत्र को प्रभावित किया. ऐसे में विचारणीय बात है कि आर्थिक नीतियों और अर्थव्यवस्था को लेकर स्वामी विवेकानंद की क्या सोच थी. स्वामी विवेकानंद ने गरीब दूर करने, कृषि और औद्योगिक विकास और श्रमिकों की स्थिति के बारे में अपनी राय खुलकर बताई. स्वामी जी भारत की गरीबी का मुख्य जिम्मेदार यूरोपीय देशों को मानते थे, जो भारत की संपत्ति को लूटकर ले गए और जिन्होंने भारत के उद्योग धंघों को तबाह किया. लेकिन साथ ही वे भारतीय समाज में आ गई जड़ता, कुरीतियों और अंधविश्वास को भी इसका जिम्मेदार मानते थे. इसके लिए उन्होंने धार्मिक कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया और समाज में श्रम के महत्व को स्थापित किया.

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स्वामी विवेकानंद देश में औद्योगिक विकास के पक्षधर थे. वे चाहते थे कि पश्चिमी देशों से विज्ञान और प्रौद्योगिकी को सीखकर देश की तरक्की की जाए. स्वामी विवेकानंद जब शिकागो की धर्म संसद में शामिल होने के लिए अमेरिका जा रहे थे, तो जहाज में उसके साथ जमशेदजी टाटा भी थे. जमशेदजी टाटा भारत में स्टील प्लांट लगाना चाहते थे और इस सिलसिले में अमेरिका जा रहे थे. इस दौरान इन दोनों महान शख्सियत के बीच देश की आर्थिक नीतियों पर चर्चा हुई.

स्वामी विवेकानंद ने टाटा से कहा, 'वे जापान से आयात करके भारत में क्यों बेचते हैं. भारत में क्यों नहीं बनाते. इससे देश का पैसा बाहर नहीं जाएगा और साथ ही देश में वर्कर को रोजगार भी मिलेगा.' स्वामी विवेकानंद ने उन्हें भारत में ही नए उद्योग लगाने की सलाह भी दी. स्वामी विवेकानंद मानते थे कि पश्चिमी तकनीक को सीख कर ही भारत का उत्थान हो सकता है.

उन्होंने कोलकाता में अपने एक भाषण में कहा था, 'आपके पास एक सुई बनाने की क्षमता भी नहीं है और आप ब्रिटिश की आलोचना करने का दुश्साहस करते हैं. मूर्खों, उनके पैरों के पास बैठो, और उनसे कला और उद्योग सीखो. निश्चित रूप से वे प्रौक्टिकल साइंस और भौतिक स्थिति में सुधार लाने में सहायक होंगे.' लेनदेन के इस सिलसिले में वे जापान का उदाहरण देते थे और कहते थे, 'उन्होंने (जापान) यूरोपियंस से सबकुछ लिया, लेकिन वे जापानी बने रहे. इसी तरह तुम्हें भी यूरोप से लेना है, लेकिन यूरोपियंस नहीं बनना है.' हालांकि वे मशीनों के सीमित इस्तेमाल के ही पक्षधर थे. 

स्वामी जी का युवाओं का उपदेश था कि कर्म करो और अपने काम को ही धर्म मानो. पैसे कमाने के बारे में वे अथर्ववेद के एक मंत्र उदाहरण देते थे. वे कहते थे- 'शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर' यानी सौ हाथों से पैसे कमाओ और हजार हाथों से उसे बांटो.'