विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Science and Technology Department) के तहत आने वाली संस्था विज्ञान और इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (Science and Technology Department) कोविड-19 (covid 19) को पैदा करने वाले एजेंट नोवेल कोरोना वायरस (Novel Corona Virus) को कंट्रोल करने और उसे उसे खत्म करने के लिए एक खास तकनीक तैयार करा रहा है. इस काम के लिए जैव विज्ञान और जैव इंजीनियरिंग विभाग (डीबीबी) ने आईआईटी बॉम्बे को ये जिम्मेदारी सौंपी है.

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नाक में लगाया जा सकेगा जेल

आईआईटी बॉम्बे (IIT Bombay) की एक टीम एक खास जैल तैयार कर रही है जिसे नाक में लगाया जा सकता है. दरअसल नोवेल कोरोना वायरस नाक और गले के जरिए ही शरीर में प्रवेश करता है. इस जेल को लगाने से वायरस शरीर में दाखिल ही नहीं हो पाएगा. इस जल को विकसित करने के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग आर्थिक सहायता प्रदान कर रहा है.

कोरोना पर लग सकेगी रोक

इस जेल के विकसित होने से न सिर्फ स्वास्थ्य कर्मचारियों को सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगी, बल्कि कोविड-19 के सामुदायिक संक्रमण पर भी रोक लगायी जा सकेगी. इससे कोरोना वायरस से लड़ने में भी मदद मिलेगी. covid 19 का संक्रमण बहुत तेजी से फैलता है. इसको देखते हुए डॉक्टर और नर्स सहित स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाले कर्मचारियों के सामने कोविड-19 के मरीज का इलाज करते समय सबसे अधिक जोखिम रहता है. ये बीमारी छूने से फैलती है इस लिए इसका खतरा अधिक रहता है. ऐसे में ये जेल काफी काम आएगा.  

नौ महीने में विकसित होगा जेल

आईआईटी बॉम्बे की टीम ने कोविड-19 के प्रमुख एजेंट सार्स-कोव-2 वायरस के संक्रमण को दो चरणों में रोकने की रणनीति बनाई है. ये वायरस सबसे पहले फेफड़ों की कोशिकाओं में अपनी प्रतिकृतियां पैदा करता रहता है, इसलिए रणनीति का पहला भाग वायरस को शरीर की कोशिकाओं के साथ जुड़ने से रोकने के लिए प्रयास किया जा रहा है. दूसरे चरण में जैविक अणु शामिल किए जाएंगे, जिससे डिटर्जेंट की तरह वायरसों को फंसाकर निष्क्रिय किया जाएगा.  इस रणनीति के तहत जेल विकसित किया जाएगा जो नाक में लगाया जा सकता है.

 

ये टीम डवलप करेगी ये जेल

आईआईटी बॉम्बे के प्रोफेसर किरण कोंडाबगील, प्रोफेसर रिंती बनर्जी, प्रोफेसर आशुतोष कुमार और प्रोफेसर शमिक सेन इस परियोजना का हिस्सा होंगे. टीम को विषाणु विज्ञान, संरचनात्मक जीव विज्ञान, जैव भौतिकी, बायोमैटेरियल्स और दवा वितरण के क्षेत्रों में खासा अनुभव है और इस तकनीक के लगभग 9 महीनों में विकसित होने का अनुमान है.