भारत में पहले सिर्फ परंपरागत तरीकों से खेती होती थी, लेकिन अब खेती में कई तरह के एक्सपेरिमेंट होने लगे हैं. आज के वक्त में बिना मिट्टी के भी खेती (Farming) होती है, जिसे हाइड्रोपोनिक फार्मिंग (Hydroponic Farming) कहते हैं. यहां तक कि हवा में भी खेती होती है, जिसे एयरोपोनिक फार्मिंग (Aeroponic Farming) कहते हैं. अब तो मछली पालन भी तालाब के बजाय बायोफ्लॉक तकनीक (Fish Farming by Biofloc Technique) से होने लगा है. इसे एक्वाकल्चर भी कहा जाता है. हाइड्रोपोनिक और एक्वाकल्चर को मिलाते हुए एक्वापोनिक फार्मिंग (Aquaponic Farming) को बनाया गया है. आइए जानते हैं इसके बारे में डिटेल से.

क्या होती है एक्वापोनिक फार्मिंग?

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एक्वापोनिक फार्मिंग के तहत एक तरफ बायोफ्लॉक तकनीक की मदद से टैंक में मछलियां पाली जाती हैं. वहीं दूसरी ओर हाइड्रोपोनिक फार्मिंग के तहत खेती की जाती है. जब टैंक में मछलियां फीड खाती हैं तो करीब 70 फीसदी तक मल निकालती हैं. मछलियों का ये मल टैंक में ही जमा होने लगता है और पानी में भी घुलता जाता है. अगर ये मल अधिक दिनों तक पानी में रहता है तो इससे टैंक में अमोनिया का लेवल बढ़ने लगता है. बता दें कि अगर टैंक में अमोनिया का लेवल बहुत ज्यादा बढ़ जाता है तो यह मछलियों के लिए जानलेवा साबित हो सकता है. भले ही मछलियों का मल मिला हुआ ये पानी मछलियों के लिए नुकसानदायक होता है, लेकिन हाइड्रपोनिक खेती में इसका इस्तेमाल होता है.

जब मछिलयों के टैंक का ये पानी हाइड्रोपोनिक फार्मिंग के जरिए पौधों की जड़ों में पहुंचता है तो वहां मौजूद बैक्टीरिया उस पानी के अमोनिया को नाइट्रोजन में तोड़ देते हैं. नाइट्रोजन पौधों के विकास के लिए बहुत अच्छा होता है. यानी मछलियों के मल वाला पानी हाइड्रोपोनिक फार्मिंग में पौधों के लिए न्यूट्रिशन का काम करता है. पौधों की तरफ से पानी का न्यूट्रिशन ले लिए जाने के बाद उसे फिर से प्यूरिफिकेशन के लिए भेज दिया जाता है और प्यूरिफाई होने के बाद पानी फिर से मछलियों के टैंक में चला जाता है. यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है. इस तरह पानी की भी काफी बचत होती है और मछलियों का वेस्ट पौधों के लिए न्यूट्रिशन का काम करता है. कई फार्म तो ऐसे भी होते हैं, जिनमें नीचे मछली पलती हैं और ऊपर हाइड्रोपोनिक फार्मिंग होती है. लेकिन उस स्थिति में पानी को बीच-बीच में बदलना पड़ता है.

बहुत से फायदे हैं एक्वापोनिक फार्मिंग के

जिन जगहों पर पानी की कमी है या जहां की जमीन पथरीली है, वहां पर इस तरह की खेती बहुत ही फायदे वाली साबित हो सकती है. इस तरीके की खेती में आम खेती की तुलना में करीब 95 फीसदी पानी की बचत होती है, क्योंकि एक ही पानी को बार-बार इस्तेमाल किया जाता है. वहीं खेती में पौधों को न्यूट्रिशन देने के लिए कैमिकल का भी इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ती है. न्यूट्रिशन की कमी टैंक के पानी से पूरी होती रहती है. इसका एक बड़ा फायदा ये भी है कि इस तरह की खेती में आप कई लेयर की खेती कर सकते हैं, जिससे कम जगह में बहुत सारी फसल उग जाएगी. 

ध्यान रखें ये बातें

इस खेती में एक ही पानी का इस्तेमाल मछलियों और सब्जियों दोनों के लिए किया जाता है. साथ ही यह जमीन पर नहीं होती है, तो आपको पहले इस खेती की अच्छी जानकारी हासिल कर लेनी चाहिए. मुमकिन हो तो इस तरह की खेती की कुछ दिन ट्रेनिंग भी लें या किसी बड़े फार्म में कुछ दिन इंटर्नशिप जैसा कुछ कर लें. आपको बैक्टीरिया और टेंपरेचर से जुड़ी जानकारियां भी हासिल करनी होंगी. यह खेती 17-34 डिग्री के कंट्रोल एनवायरमेंट में होती है. ऐसे में आपको ध्यान रखना होगा कि तापमान बहुत कम या बहुत ज्यादा ना हो जाए, वरना पौधों और मछलियों दोनों के लिए हानिकारक साबित हो सकता है. सबसे खास बात, अगर आप ये खेती करना चाहते हैं तो पहले ये जान लीजिए कि इसमें आपका बहुत सारा पैसा खर्च होगा. ऐसे में आपको पहले अपने प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग के बारे में सोचना चाहिए, उसके बाद खेती शुरू करनी चाहिए, वरना दिक्कत हो सकती है.