जब किसी प्रोडक्ट को बनाने वाला यानी मैन्युफैक्चरर उस पर अपनी ब्रांडिंग ना करते हुए ग्राहक की ब्रांडिंग करता है तो उसे वाइट लेबलिंग कहते हैं.
स्टार्टअप की दुनिया में किसी ब्रांड का पब्लिक जाना उसे कहते हैं जब वह आईपीओ लाता है. इसके जरिए कंपनी जनता से पैसे जुटाती है.
एक ब्रिज लोन दो हफ्तों से लेकर 2-3 साल तक का हो सकता है. दो राउंड की फंडिंग के बीच में पैसों की कमी को पूरा करने के लिए स्टार्टअप ब्रिज लोन लेते हैं.
जैसा कि नाम से ही साफ है, जो लोग शुरुआती दौर में ही किसी प्रोडक्ट को ट्राई करते हैं, उन्हें अर्ली एडॉप्टर कहते हैं. आइडिया टेस्टिंग के लिए यह काम के होते हैं.
जब एक निवेशक किसी स्टार्टअप में पैसे डालता है तो वह ये देखता है कि कब वह अपनी हिस्सेदारी बेचकर मुनाफा कमाएगा, इसे ही एग्जिट स्ट्रेटेजी कहते हैं.
आसान भाषा में जब कोई कंपनी अपनी दिशा बदलती है तो उसे Pivot कहते हैं. जब बिजनेस मॉडल ठीक से ना चले तो स्टार्टअप के लिए Pivot करना जरूरी होता है.
जब कोई यूनीक प्रोडक्ट पहली बार मार्केट में उतरता है और लोग उसे तेजी से इस्तेमाल करने लगते हैं तो उसे फर्स्ट मूवर एडवांटेज कहते हैं. जैसे पेटीएम.
एक कंपनी के ब्रांड से पता चलता है कि उसके तहत क्या बेचा जा रहा है. यह कंपनी के नाम से अलग भी हो सकता है. इससे ग्राहकों के दिमाग में कंपनी की एक तस्वीर बनती है.
जब ग्राहकों को ब्रांड से जोड़ने की लागत तमाम पुराने और नए ग्राहकों की वैल्यू से कम होती है, तो ये कहा जाता है कि उस स्टार्टअप ने प्रोडक्ट मार्केट फिट टेस्ट कर लिया है.
कई स्टार्टअप में नॉन-डिस्क्लोजर एग्रीमेंट साइन करवाया जाता है. इसके तहत दो पार्टियां इस बात पर सहमत होती हैं कि एक तय समय तक स्टार्टअप की कुछ बातों को सीक्रेट रखा जाएगा.
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