भाद्रपद मास की शुक्ल पूर्णिमा के बाद पितृ पक्ष की शुरुआत हो जाती है और ये आश्विन मास के कृष्ण अमावस्या तक चलता है. पितृ पक्ष हमारे पूर्वजों को समर्पित है. इस दौरान पितरों के निमित्‍त श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान वगैरह किया जाता है. माना जाता है कि इससे पितर प्रसन्‍न होते हैं और परिवार पर उनका आशीर्वाद बना रहता है. लेकिन इन सब कामों को करते समय विशेष नियमों का पालन किया जाता है जैसे पितरों को जल हमेशा दक्षिण दिशा में ही अर्पित किया जाता है. ऐसा क्‍यों किया जाता है, आइए आपको बताते हैं इस बारे में.

दक्षिण दिशा में होता है पितरों का निवास

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ज्‍योतिषाचार्य अरविंद मिश्र की मानें तो पितृलोक दक्षिण दिशा में चंद्रमा के ऊपर की ओर बताया गया है. यानी हमारे पूर्वजों का निवास स्‍थान दक्षिण की ओर है. इस कारण से पितरों के निमित्‍त जो भी काम किए जाते हैं, वो दक्षिण दिशा में ही किए जाते हैं. चाहे तर्पण हो या उनके लिए दीपदान. रामायण में भी इस बात का उल्‍लेख है कि राजा दशरथ की मृत्‍यु के समय प्रभु श्रीराम ने स्‍वप्‍न में उन्‍हें दक्षिण दिशा में जाते देखा था.

चावल और जौ का पिंड क्‍यों

श्राद्ध के दौरान चावल या जौ के आटे का पिंडदान किया जाता है. सनातन धर्म में किसी गोलाकार वस्‍तु को पिंड कहा जाता है और साकार पूजा करने का चलन है. इसलिए पिंड को पितरों का रूप मानकर पंच तत्वों में व्याप्त मानकर उन्हें पिडदान दिया जाता है. ये पिंड चावल को पकाकर बनाए जाते हैं या जौ के बनाए जाते हैं. पिंड का संबन्‍ध चंद्रमा से माना गया है और पितृ लोक चंद्रमा के ऊपर बताया जाता है. मान्‍यता है कि पिंडदान से वो पूर्वजों को प्राप्‍त होता है. 

सफेद फूलों का इस्‍तेमाल क्‍यों

पितरों की पूजा में ज्‍यादातर सफेद फूलों का इस्‍तेमाल किया जाता है. इसके पीछे मान्‍यता है कि सफेद रंग सादगी का रंग है. वहीं हमारे पूर्वज अब एक आत्‍मा हैं और आत्‍मा का कोई रंग नहीं होता. इसलिए उनकी पूजा में रंग बिरंगे फूलों की बजाय सफेद फूल इस्‍तेमाल किए जाते हैं. इसके अलावा सफेद रंग चंद्रमा से संबन्धित है. ऐसे में पितरों की पूजा में सफेद फूलों का इस्‍तेमाल होने से वो चंद्रमा के जरिए पितरों तक पहुंच जाता है.