Generic Medicine: कोरोना वायरस के भारत में आने के बाद जिस एक दवा का नाम पूरे देश को रट गया है, वह है DOLO 650. बुखार होने के साथ ही लोग तुरंत डोलो ले लेते हैं. कोरोना आने के बाद से ही डोलो की रिकॉर्ड बिक्री हुई है. हेल्थकेयर रिसर्च फर्म IQVIA के मुताबिक बैंगलुरु की कंपनी माइक्रोलैब्स की दवा DOLO 650 की कमाई 2021 में 307 करोड़ रुपये रही है. कोरोना काल में कंपनी ने साढ़े सात करोड़ पत्ते यानी 350 करोड़ गोलियां बेच डाली. लेकिन हाल ही में पड़े CBDT की रेड में इस बात का खुलासा हुआ कि माइक्रोलैब्स कंपनी ने डॉक्टरों को डोलो लिखने के लिए करीब 1 हजार करोड़ रुपये के गिफ्ट्स दिए हैं. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह एक कंपनी या दवा का मामला है. जी नहीं. ऐसी हजारों दवाएं है, जिनके सस्ते विकल्प मार्केट में होने के बावजूद आपको उसके महंगे ऑप्शन ही लिखे जाते हैं. कई बार फार्मा कंपनियों के दबाव में और कई बार क्वालिटी के चलते आपको महंगी दवाएं ही खरीदनी पड़ती है.

FREEBIES पर क्या कहता है कानून 

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भारत में डॉक्टर फार्मा कंपनियों से किसी तरह की फेवर नहीं ले सकते. ये कानून में दर्ज है. Indian Medical Council (Professional Conduct, Etiquette and Ethics) Regulations, 2002 के तहत डॉक्टर फार्मा कंपनी से कोई तोहफा नहीं ले सकते. मेडिकल काउंसिल के रेगुलेशन 6.8 के मुताबिक डॉक्टर किसी फार्मा कंपनी से गिफ्ट्स, टैवल की सुविधा, होटल स्टे, कैश जैसा कुछ नहीं ले सकते. ऐसा पाए जाने पर डॉक्टर की प्रैक्टिस तीन महीने से लेकर एक साल तक के लिए सस्पेंड की जा सकती है. 

हालांकि फार्मा कंपनियां तोहफा दे सकती हैं या नहीं , इस बारे में ये रेगुलेशन कुछ नहीं कहता. लिहाजा़ एक मामले में एक फार्मा कंपनी फ्रीबीज़ के बदले टैक्स में राहत पाने कोर्ट तक चली गई थी. इसी वर्ष फरवरी में इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वो बेहद दिलचस्प है. मरीज के लिए डॉक्टर का लिखा दवा का पर्चा पत्थर की लकीर होता है, चाहे वो दवाएं मरीज की पहुंच से बाहर क्यों ना हों. डॉक्टर पर विश्वास का स्तर इतना अधिक है. इस मामले में फार्मा कंपनी और डॉक्टर दोनों पर एक्शन हुआ. ये कंपनी ज़िंक (ZINC) टैबलेट्स बेचने की खातिर डॉक्टरों को तोहफे बांट रही थी. हो सकता है कि आपने भी बिना वजह जिंक सप्लीमेंट्स खाए हों लेकिन हमारी और आपकी मजबूरी ये है कि डॉक्टर की राय आम आदमी के लिए भगवान के कथन से कम नहीं होती. 

हालांकि कड़वा सच ये है कि फार्मा कंपनियों और डॉक्टरों का मेल जोल जारी है. यहां हम ये स्पष्ट कर दें कि हम डॉक्टरों का बहुत सम्मान करते हैं और हम यह भी मानते हैं कि भारत में ज्यादातर डॉक्टर ईमानदार हैं. लेकिन ये भी सच है कि मरीज को दवाएं लिखते वक्त दवाओं का ब्रांड अहम हो जाता है. 70 प्रतिशत भारतियों के लिए इलाज करवाना उनकी जेब से बाहर की बात है - इसमें दवाओं का बिल एक बड़ी भूमिका निभाता है. इसलिए आज हम आपको ये बताएंगे कि आपकी दवाओं का बिल कैसे कम हो सकता है. लेकिन उससे पहले ये जानिए कि भारत में दवाओं के दाम तय कैसे होते हैं - 

भारत में दवा के दाम कैसे तय होते हैं

भारत में 3 हज़ार दवा कंपनियां है और भारत का दवा बाज़ार 42 बिलियन का है. इनमें से केवल एक चौथाई दवाएं ऐसी हैं जिनके दाम तय करना कुछ हद तक सरकार के हाथ में हैं. भारत में NATIONAL PHARMACEUTICAL PRICING AUTHORITY यानी NPPA National List of Essential Medicines के तहत आने वाली दवाओं के दाम तय करती है. भारत में 355 दवाओं और उनके 882 फॉर्मूलेशन्स के दाम DRUG PRICE CONTROL ORDER (DPCO) के तहत तय होते हैं. लेकिन इस ऑर्डर के तहत जो दाम तय होते हैं उसका फॉर्मूला ऐसा है कि दाम कम होने के आसार कम ही रहते हैं.

भारत में किसी बीमारी की जो दवाएं सबसे ज्यादा बिकती हैं उनके औसत दाम के आधार पर सरकार दवाओं का सीलिंग प्राइस यानी अधिकतम मूल्य तय कर देती है. फार्मा कंपनियों की मार्केटिंग स्ट्रैटजी की मेहरबानी है कि भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाली दवाएं आमतौर पर बड़ी कंपनियों की महंगी दवा ही होती है. अगर आधार ही ये दवाएं होंगी तो दाम कैसे घटेंगे, ये समझा जा सकता है. 

भारत में 2013 तक दवाओं के दाम लागत और मुनाफा जोड़कर तय होते थे. लेकिन अब दवा के दाम का उसकी लागत से कोई लेना देना नहीं रहा. जो दवाएं dpco के तहत नहीं आती - उनके दाम निर्माता कंपनी खुद तय कर सकती है. यानी 10 रुपए में बनने वाली दवा का दाम वो 1 हज़ार भी रख सकती है. 

जेनेरिक दवाएं हैं समाधान ? 

यहां रोल आता है जेनेरिक दवाओं का - यानी ब्रांड की जगह सीधे सॉल्ट के नाम से दवा मिल सके. ये दवाएं ब्रांडेड के मुकाबले आमतौर पर बेहद सस्ती होती हैं. जेनेरिक दवा बेचने का ज्यादा काम भारत में प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र करते हैं. भारत में 8 लाख से ज्यादा केमिस्ट की दुकाने हैं और जन औषधि केंद्र साढे 8 हज़ार. ये हाल तब है जब भारत दुनिया में सबसे ज्यादा जेनेरिक दवाएं बनाता है. अब आप समझ सकते हैं कि अगर ये सारे सेंटर भी जेनेरिक दवा बेचने लगें तो भी काम बनना मुश्किल है. 

प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टरों के मुताबिक हर ब्रांडेड दवा का जेनेरिक विकल्प मिल पाना संभव नहीं है. हालांकि उन्होंने माना कि कुछ डॉक्टर फार्मा कंपनियों के प्रभाव में काम करते हैं लेकिन सभी ऐसे नहीं हैं. फार्मा क्षेत्र के जानकारों की मानें तो भारत में दवा कंपनियों और डॉक्टरों के गठबंधन को तोड़ने के लिए मौजूदा कानूनों को अनिवार्य करने और कड़ाई से लागू करने पर ही काम बन सकता है. इसके अलावा जेनेरिक दवाओं में लोगों का भरोसा जगाने और उनकी उपलब्धता तय करने पर सरकार को अभी बहुत काम करना है.