यूरोप की सबसे बड़ी इकोनॉमी जर्मनी में भी मंदी आने की बात चल रही है क्‍योंकि जिस तरह वहां पर घरेलू कामकाज और इंडस्‍ट्रीयल यूज तक के लिए नेचुरल गैस के लिए हैवी डिपेंडेंसी है, ऐसे में अगर सर्दियों से पहले यही आनी बंद हो जाए, तो परेशानी बढ़ सकती है. वहीं अगर जर्मनी मंदी की ओर जाएगा तो यूरोप की परेशानी तो कहीं ज्‍यादा बढ़ सकती है. आइए जानते हैं इस बारे में क्‍या कहना है जी बिजनेस के मैनेजिंग एडिटर अनिल सिंघवी का.

उल्‍टी हो चुकी है स्थिति

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इस बारे में अनिल सिंघवी कहते हैं कि जर्मनी, यूरोप और बाकी सारे बड़े देशों के साथ सहानुभूति के साथ मैं एक चीज कहना चाहता हूं कि बहुत सारे देश ऐसे हैं जिन्‍हें अब समझ में आएगा कि डेवलपिंग कंट्रीज, अंडर डेवलप कंट्रीज और थर्ड वर्ल्‍ड कंट्रीज होती है, वो किस तरह की मुश्किलों से गुजरते हैं. इस तरह की मुश्किलें इन लोगों ने कभी देखी नहीं, और हर दिन कभी एक जैसा समान नहीं होता. यही कच्‍चा तेल 125 और 150 डॉलर होता था, तो भारत जैसे देश काफी मुश्किल में आ जाते थे. आज स्थिति उल्‍टी है. आज 100 डॉलर पर हम लड़खड़ा नहीं रहे, 125 डॉलर पर भी हिले नहीं.

आर्टिफिशियल ही बढ़ रहे हैं नेचुरल गैस के दाम

अब अगर गैस के दाम दोगुने और तीन गुने हो गए, तो सभी देशों के लिए हुए हैं. हमने भी अपनी अर्थव्‍यवस्‍था को संभाला है, हम ये नहीं चाहते कि किसी देश की अर्थव्‍यवस्‍था डूबे, लेकिन जो नजरिया उनका डेवलपिंग कंट्रीज और अंडर डेवलप कंट्रीज की तरफ होता था, वो उन्‍हें अपने लिए देखना होगा. वो चाहे किसी भी नजर से देखते हों, लेकिन हम यही सोचेंगे कि किसी भी देश के साथ कुछ खराब न हो. जो दाम हैं, वो सही रहने चाहिए, न कम हों और न ज्‍यादा हों. नेचुरल गैस के जो दाम बढ़ रहे हैं, आर्टिफिशियल ही बढ़ रहे हैं और हम सब उसकी वजह जानते हैं.

सबको मिलकर निपटाना होगा ये मामला

आज कोई कुछ नहीं बोलता रशिया के विरुद्ध में, कोई सेंग्‍शन नहीं लगाता. अमेरिका अगर लगाना भी चाहे तो यूरोप कहता है कि हमें गैस चाहिए. सबको अपना अपना इंटरेस्‍ट देखना है और इंटरेस्‍ट देखने के चक्‍कर में दुनिया की ऐसी तैसी हो रही है. सारी अर्थव्‍यवस्‍था मुश्किल में आ रही है. बेहतर तो ये होता कि सब अपने अपने ईगो को किनारे रखकर सब मिलकर मामला सुलझाते और खत्‍म करते. इस समस्‍या का समाधान तभी निकलेगा जब दो-चार देश उड़ेंगे और इनकी अर्थव्‍यवस्‍था भी खराब होगी. तब सबको ये मामला निपटाकर खत्‍म करने की जरूरत है. पता चला कि रशिया ने युद्ध करके पैसे गंवाने के बजाय, मोटे पैसे कमा लिए, ऐसी स्थिति दिख रही है. आजकल बम और बारूद से ज्‍यादा आर्थिक और करेंसी मोर्चे पर युद्ध होने लगे हैं.

जर्मनी की मंदी से भारत को मिलेगा आगे बढ़ने का मौका

जर्मनी जैसी अर्थव्‍यवस्‍था मंदी में आए, ये हमारे लिए एक और स्‍टेप आगे बढ़ने का मौका है. हम किसी को पछाड़कर आगे नहीं बढ़ना चाहते, लेकिन अगर कोई पीछे होकर हमें आगे बढ़ने का मौका दे, तो हम मना थोड़ी करेंगे. टॉप 3 में तो हमें पहुंचना ही है. चौथा जर्मनी है, ब्रिटेन हमारे पीछे हो गया. टॉप 4 तक समस्‍या नहीं है, हो सकता है कि हम टॉप 3 तक भी पहुंच जाएं, आगे का चैलेंज नंबर 1 और नंबर 2 यानी अमेरिका और चाइना के बीच में है. उसमें थोड़ा वक्‍त है.

अबनॉर्मल माहौल में कभी किसी को फायदा नहीं

जो कुछ भी हो रहा है, एनर्जी क्राइसिस को सॉल्‍व करने की जरूरत है. यूरोप वगैरह में अगर इस तरह की चीजें आगे चलकर भी बनी रहती हैं, तो ये हमारे लिए भी अच्‍छा नहीं है. अच्‍छा किसी के लिए नहीं है. आप अगर नॉर्मल माहौल में बिजनेस कर रहे हैं, तो ये अच्‍छी बात है. अबनॉर्मल माहौल जिसमें किसी को फायदा और किसी को नुकसान हो, ये किसी के लिए अच्‍छा नहीं है. जिस जिस कंट्री की जो ताकत है, उसके बेस पर वो बिजनेस करे और करता रहे, ये अच्‍छा है, लेकिन इनडायरेक्‍ट ब्‍लैकमेलिंग और बड़ा पैसा कमाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वो दुनियाभर के लिए ठीक नहीं है. लेकिन ऐसा हमारे सोचने से नहीं होता, ये लेसन थोड़े मुश्किल से सीखते हैं और अपनेआप सीखते हैं, इस बार यूरोप वाले सीखेंगे. आशा करता हूं कि ये स्थिति जल्‍दी ठीक हो.