Digital Arrest: जिस दौर में 'डिजिटल अरेस्ट' मुख्य धारा की मीडिया के लिए छोटा मोटा फ्रॉड समझा जाता था, ज़ी बिजनेस तब से डिजिटल अरेस्ट पर बड़ी और अनवरत कवरेज दे रहा है. संभवत: हम देश के अग्रणी चैनल हैं जिन्होंने सबसे पहले इस खतरे के प्रति लोगों को आगाह किया और जांच एजेंसियों को इससे निपटने के लिए कमर कसने को कहा. खासतौर पर कोविड-19 के बाद से, जब एक नई तरह की डिजिटल गिरफ्तारी का चलन शुरू हो गया. प्रधानमंत्री मोदी ने अब अपने ‘मन की बात’ में इस तरह के फर्जीवाड़े की चर्चा की. निसंदेह ये बेहद स्वागत योग्य बात है. 

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प्रधानमंत्री खुद यदी लोगों को बता रहे हैं कि देश की एजेंसियां इस तरह से नागरिकों को परेशान नहीं करती हैं और लोगों को सतर्क रहने की जरूरत है, तो अपने आप में जागरूकता का बड़ा टूल है, पर क्या इतना ही काफी है? जहां एक तरफ आम लोगों को डिजिटल अरेस्ट के प्रति जागरूक करना ज़रूरी है, वहीं क्या हमें यह समझने की भी ज़रूरत नहीं कि लोग ठगे क्यों जा रहे हैं? इसके पीछे क्या केवल जागरूकता की कमी है, या दूसरे कारण ? जागरूकत के साथ उन परिस्थितियों की भी पड़ताल होनी जरूरी है जिसमें पुलिस या सुरक्षा एजेंसियों के फोन को अनहोनी का संकेत माना जाता है.

आम नागरिकों के मन में ये अजीब सा डर क्यों है, जो ख़ुद को पुलिस या एजेंसी का अफसर बताने वाले ठग हमारे नाम से लेकर, बैंक अकाउंट, परिवार की जानकारी तक का हवाला देते हैं, और लोग डरकर उनकी बात मान लेते हैं. 

हम पुलिस से डरते क्यों हैं?

डिजिटल अरेस्ट का मसला जितना पेजीदा है, उतना ही सीधा उसकी जड़ में समाया एक सवाल है: पुलिस, सीबीआई, ईडी जैसे संस्थानों के नाम सुनकर ही हमारे अंदर डर क्यों जाग जाता है? ऐसा क्यों है कि लोग मानते हैं कि पुलिस उनसे पैसे मांग सकती है, धमका सकती है, या किसी गलत मामले में फंसा सकती है? The Status of Policing in India Report (Common Cause–CSDS 2018) रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि भारत में हर पांच में से दो लोग पुलिस से डरते हैं. इसके पीछे एक लंबा इतिहास है, जहां कई बार इन एजेंसियों ने अत्यधिक शक्ति का दुरुपयोग किया है. गलत तरीके से हिरासत में लेना और उत्पीड़न जैसी घटनाएं लोगों के मन में डर पैदा करती हैं. 

जब सुरक्षा एजेंसियां खुद से डराने वाली बन जाती हैं, तो नागरिकों की धारणा यह बन जाती है कि ये संस्थाएं उनकी सुरक्षा के बजाय खतरा बन सकती हैं. अब ये डर डिजिटल ठगों के लिए एक सीधा रास्ता खोल देता है. जब लोग सवालों के साथ खड़े वर्दी में किसी इंसान को देखते हैं तो उन्हें लगता है कि उनका करियर, सामाजिक प्रतिष्ठा, सबकुछ खत्म होने की कगार पर है. यानी फ्रॉड करने वाला जानता है कि सिर्फ एक पुलिसवाले या सीबीआई-ईडी का अधिकारी बनना ही सामने वाले के लिए काफी होगा.  

वो हमारे बारे में सब कैसे जानते हैं?

एक बड़ा सवाल ये भी है कि ठगों तक हमारे डाटा की पहुंच कैसे है? हमारे बैंक डिटेल्स, परिवार की जानकारी, यहाँ तक कि हमारी दिनचर्या तक का ब्यौरा उनके पास कैसे पहुँचता है? इन सारे आंकडों के हाथ में होने के साथ ही फ्रॉड करने वाले लोग मजबूत स्थिति में आ जाते हैं और एक आम इंसान के पास विश्वास करने के अलावा कोई उपाय बचता ही नहीं.  ऐसा क्यों और कैसे हो रहा है? हमारे पास डिजिटल सुरक्षा का कानून तो है, पर कानून बन जाने से ही समस्या का हल नहीं निकलता. कानून को लागू करना भी जरूरी है, और वही नहीं हो रहा. साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ और 'डिजिटल कानूनों से समृद्ध भारत' पुस्तक के लेखक, विराग गुप्ता कहते हैं कि डेटा प्रोटेक्शन एक्ट तो है, पर इसके लिए जरूरी नियम और टोह देने वाली गाइडलाइंस अब तक लागू नहीं हुईं. मतलब, इस देश में डिजिटल कंपनियाँ हमारे डेटा को नीलामी पर चढ़ा सकती हैं, और ठग इसका फायदा उठा सकते हैं.

विराग गुप्ता का कहना है कि 1930 हेल्पलाइन को आरबीआई के साथ जोड़ा जाना चाहिए ताकि किसी भी फर्जीवाड़े की सूचना मिलने पर तत्काल एक्शन लिया जा सके. वह यह भी कहते हैं कि संविधान में साइबर अपराधों को समवर्ती सूची में लाना चाहिए ताकि पुलिस की पहुंच और ताकत बढ़े, ताकि ऐसे संगठित अपराधों पर रोक लगाई जा सके.

डर का ग्लोबल धंधा

डिजिटल गिरफ्तारी का फर्जीवाड़ा सिर्फ पैसों का मामला नहीं है, यह डर का धंधा है. ठग यह जानते हैं कि वर्दी की ताकत से वे लोगों को आसानी से अपने जाल में फंसा सकते हैं. वे जानते हैं कि भारतीय समाज में पुलिस या सीबीआई का नाम सुनते ही लोगों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है. ये डर का माहौल भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में बढ़ रहा है. अमेरिका और ब्रिटेन में डिजिटल गिरफ्तारी घोटाले एक बड़ा खतरा बन चुके हैं, जहाँ ठग सरकारी एजेंसी के नाम पर लोगों को धमकाते हैं. चाहे अमेरिका का "IRS स्कैम" हो, जिसमें टैक्स चोरी का डर दिखाकर पैसे ऐंठे गए, या ब्रिटेन का "मेट्रोपॉलिटन पुलिस स्कैम," जिसमें मनी लॉन्ड्रिंग के झूठे आरोपों से लोगों को बैंक डिटेल्स साझा करने पर मजबूर किया गया. हर घटना में कानून का डर और अधिकारियों का नाम ही लोगों को ठगने का जरिया बना.

सोशल सिक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन और नेशनल क्राइम एजेंसी जैसे नामों का इस्तेमाल कर बुजुर्गों तक को निशाना बनाया गया. ठीक भारत में जिसमें जाने माने उद्योगपतियों से लेकर बुजुर्गों और महिलाओं को कानून का डर दिखाकर लाखों की फिरोती वसूली गई. ये दर्शाता है कि डिजिटल सुरक्षा की कमी और सरकारी एजेंसियों पर लोगों का भय, ठगों को अपना खेल खेलने का आसान मौका देता है.

यह अविश्वास क्यों है?

अविश्वास की इस गहरी खाई को भरोसे से भरना अब बेहद जरूरी हो गया है. पुलिस सुधार अब सिर्फ सेमिनारों और लेखों का विषय न रह जाए, बल्कि इसे मूर्त रूप देने की जरूरत है. चूंकी हर बार जब कोई बिना वजह पकड़ा जाता है या किसी पर बेवजह दबाव डाला जाता है, तब-तब पुलिस की छवि और भी धुंधली होती रहेगी और स्कैम करने वालों के हौसले मजबूत होते जाएंगे. दुर्भाग्यवश, "कानून का डर होना जरूरी है" के नाम पर इन एजेंसियों से जुड़े लोग अपने अधिकारों का असीमित और अनुचित उपयोग करते आएं हैं, जिससे आम आदमी और इन एजेंसियों के बीच एक संरक्षण का नहीं, बल्कि डर का रिश्ता विकसित हो गया है. इसीलिए, जरूरत इस बात की है कि प्रधानमंत्री मोदी का अनुसरण करते हुए कानून प्रवर्तन एजेंसियां भी अपने स्तर पर आगे बढ़कर जनता को यह भरोसा दिलाएं कि वो जनता की सुरक्षा के लिए हैं, असुरक्षा के लिए नहीं. और पैसे मांगने या धमकी देने के लिए वो कभी कॉल नहीं करेंगे.

'मन की बात' से परे

प्रधानमंत्री मोदी ने ‘मन की बात’ में जिस गहराई से इस मुद्दे को उठाया, यह स्वागत योग्य है. पर क्या ये चर्चा बस एक संदेश तक सीमित रहेगी, या इसे कानून में भी बदलने का प्रयास होगा? जब तक डिजिटल सुरक्षा कानून को पूरी तरह से लागू नहीं किया जाता, ये फर्जीवाड़ा यूं ही बढ़ता रहेगा. पुलिस और जनता के बीच की दूरी को पाटना बहुत ज़रूरी हो गया है. क्यों ऐसी घटनाओं में दी गई फिरोतियों के आंकड़े देखें तो ये प्रतीत होता है कि लोगों को खाकी के डर के साथ साथ इस बात का भी विश्वास है कि रिश्वत या फिरौती देकर वो मामले से पीछा छुड़ा सकते हैं. अपनी ऐसी छवि को जांच एजेंसियों को बड़ी चुनौती के रूप में लेना चाहिए.

यह भारत का समय है, और यह समय न केवल नए अवसरों का, बल्कि नए खतरों का भी है. अगर हम सच में अपने नागरिकों को इन धोखाधड़ी से बचाना चाहते हैं, तो हमें कुछ कड़वे सवालों का सामना करना पड़ेगा. असली खाकी को फर्जी और अपराधी खाकी पर जीत दर्ज करनी होगी. खाकी को देखकर लोगों के मन में विश्वास और सुरक्षा का माहौल हर हाल में बनाना होगा. ऐसे तमाम अधिकारी और सुरक्षा-पुलिसकर्मी हैं जो ईमानदारी से इस देश के नागरिकों के मन के भीतर सुरक्षा की भावना जगाने का पुल बन सकते हैं, इन पुलों को मजबूत करना होगा. और इसके लिए शायद आम नागरिकों के साथ साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मन की बात कार्यक्रम में दिया गया संदेश जांच एजेंसियों को भी अपनाना होगा: रुको, सोचो और एक्शन लो!