एक ‘बेनाम’ जुनूनी सिंगर जो बन गया माता की भेंटों का सुल्तान, नरेंद्र चंचल की अनसुनी दास्तान
Narendra Chanchal Untold stories: नरेंद्र चंचल को लता जी के साथ डुएट गाने का भी मौका मिला. पंजाबी और हिंदी तो नरेंद्र चंचल की जुबान ही थी. इनके अलावा उन्होंने गुजराती, मराठी और बंगला भाषा में भी कई गाने गाए.
नरेंद्र चंचल लाइव स्टेज वाले कलाकार थे इसलिए रिकॉर्डिंग से उन्हें डर नहीं लगता था. (ज़ी बिज़नेस)
नरेंद्र चंचल लाइव स्टेज वाले कलाकार थे इसलिए रिकॉर्डिंग से उन्हें डर नहीं लगता था. (ज़ी बिज़नेस)
Narendra Chanchal Untold stories: आसमान को चीरती, तार सप्तक की बुलंदियों पर खेलती सुरीली तान हर इंसान पर जादू-सा असर करती है. याद होगा आपको, हाल ही में ‘इंडियन आइडल’ के मंच से संगीत का एक सितारा निकला था- सलमान अली. ऊंचे स्केल की सुरीली गायकी सलमान की खासियत है. लेकिन आवाज़ की ये सलाहियत और कैफियत हिंदुस्तान ने पहली बार आज से करीब 50 साल पहले सुनी थी. वो आवाज थी नरेंद्र चंचल (Narendra Chanchal) की. मैं नईं बोलणा जा वाले नरेंद्र चंचल, मैं बेनाम हो गया वाले नरेंद्र चंचल, चलो बुलावा आया है और तूने मुझे बुलाया वाले नरेंद्र चंचल. इंडियन आइडल जैसे मंच तो आजकल मिनटों में सितारा बना देते हैं लेकिन उस दौर में उस आवाज को अपनी जमीन बनाने के लिए जिन संघर्षों से गुजरना पड़ा वो कहानी हैरान करने वाली है.
गांव के कुएं वाला ईको और लकड़ी का माइक
साल रहा होगा 1947-48 का. अमृतसर के एक गांव में 7-8 साल का लड़का था. उस लड़के का एक अजीब सा शगल था. स्कूल से आते-जाते या कभी खेलते-खेलते हुए वो घर के पास बने कुएं पर चला जाता. कुएं मे झुक कर वो जोर-जोर से कुछ गाता और जो गूंजती हुई आवाज वापस आती उसे सुनकर खूब खुश होता. लड़के को गाने का बड़ा शौक था लेकिन घर में कोई हौसला देता नहीं दिखता था. शौक मारा लड़का अक्सर अपनी खिड़की पर खड़ा हो जाता, लकड़ी के किसी खिलौने को माइक बना लेता, अपने लिए ही अनाउंसमेंट करता और फिर ऊंची आवाज में गाने लगता. अच्छी बात ये थी कि गाना सुरीला होता था. लिहाजा मोहल्ले के बच्चे और महिलाएं उसे सुनने के लिए जुट जाते.
ढोल ताशे का सम्मोहन, मुरीदों के हार और घर की मार
लड़के की रगों में मौसीकी दौड़ती थी. आलम ये था कि गांव से कोई ढोल या बैंड वाले गुजरते तो लड़का दीवानावार उनके पीछे हो लेता और चलते-चलते दूर तक निकल जाता. बड़ी मुश्किल से मोहल्ले वाले उसे खोजकर घर पहुंचाते. ये वो दौर था जब हर मां-बाप अपने बच्चों के लिए सरकारी नौकरी का सपना देखता था. खासतौर पर बैंक और रेलवे की नौकरी का. ऐसे माहौल में घरवालों से गाने में भविष्य बनाने की बात कैसे हो. लेकिन लड़का शौक से मजबूर था. वो कभी दरवाजे तो कभी बेंच बजाकर गाता और उसकी मोहल्ला स्तरीय ऑडिएंस तैयार होती जाती. धीरे-धीरे लड़के की शोहरत बढ़ने लगी, आस-पास के इलाकों से बुलावे आने लगे. लड़के का गाना सुनने वाले उसे सम्मानित करने के लिए हार पहनाते, लेकिन घर में जब राज़ खुलता तो मार पड़ती थ. मगर धीरे-धीरे गाना गाने से लड़के का जेबखर्च निकलने लगा था, उसका जुनून बढ़ता ही चला गया.
(फोटो - ट्विवटर से)
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शेयर मार्केट, पिता की मुसीबत और गायकी के शौक को ताकत
लड़के के पिता शेयर मार्केट से जुड़े थे. वो अक्सर कोई भाव पता करने के लिए लड़के को एक जगह भेज देते थे. लड़का हैरान होता था कि यहां कोई चीज तो बिकती नहीं, फिर भाव किस बात का? बहरहाल, वहां भी पिता के दोस्त उसे पकड़कर बैठा लेते. कभी पैसे तो कभी कुछ खाने को देकर गाना सुनाने को कहते. घर में लड़के के अलावा छह भाई थे. एक बहन भी थी. परिवार बड़ा था और कमाई कम. फिर भी किसी तरह गुजारा हो रहा था. लेकिन एक बार शेयर मार्केट बुरी तरह गोता खा गया. पिता की तकरीबन सारी बचत डूब गई. उस आर्थिक झटके ने पिता को तो हताश कर दिया लेकिन लड़के के लिए उसके प्रिय शौक के लिए रास्ते खोल दिए. क्योंकि जहां बाकी भाइयों पर कमाई करने का दबाव था, वहीं लड़का गाने गाकर कुछ-कुछ कमाने लगा था.
ग्रामोफ़ोन, रफ़ी, मन्ना डे के गीत और एक जज की हौसलाअफजाई
गाने सुनने के साधन सीमित थे. कभी रेडियो तो कहीं बजता ग्रामोफोन रिकॉर्ड. लड़के को पता भी नहीं था कि संगीत सीखने के लिए उस्ताद के पास जाना होता है. ग्रामोफोन ही उसका गुरु था. लड़के से रफी साहब के गाने बड़े शौक से गाता था. खासतौर पर- चल उड़ जा रे पंछी. लेकिन उसके फेवरिट सिंगर थे मन्ना डे. उस वक्त लड़के को अंदाजा भी नहीं कि एक दिन वो इन सभी दिग्गजों के साथ खुद गाने रिकॉर्ड करेगा. वो अमृतसर में शादी ब्याह में गाता रहा. गाने के चक्कर में ही उसने मैट्रिक के बाद एफए की पढ़ाई छोड़ दी. लेकिन स्कूल के दौरान ही उसे एक म्यूजिक कंपटीशन में भेजा गया. कंपटीशन में अपना गाना तो वो मन मुताबिक नहीं गा पाया लेकिन प्रोग्राम के बाद एक जज उसके पास आए. उसका कंधा थपथपाते हुए कहा- ‘गाना छोड़ना मत, तुम अच्छा गा सकते हो’. इसके तीन साल बाद ही चंडीगढ़ में एक बड़े म्यूजिक कंपटीशन में लड़के ने गाने में फर्स्ट प्राइज जीता. अब घर वालों का विरोध हार चुका था, लड़के का जुनून जीत चुका था.
बुल्ले शाह की काफी, राज कपूर की नजर और ब्रांड नरेंद्र चंचल का जन्म
भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 की जंग हो चुकी थी. उसी के बाद में सूचना प्रसारण मंत्रालय ने लोक गायकों के ग्रुप बनाए थे जो सरहदी इलाकों में जाकर फौजियों को गाना सुनाते थे. ऐसे ही एक ग्रुप में वो लड़का भी सलेक्ट हो गया. आर्मी के अधिकारी जब उस लड़के की ऊंची तान सुनते तो वाह-वाह कर उठते. कहते- तू फिल्मों में क्यों नहीं जाता. लेकिन तब तक लड़के को फिल्मी दुनिया की कोई जानकारी नहीं थी. कुछ और वक्त ऐसे ही गुजर गया. एक रोज उसे बांबे यानी मुंबई में बैसाखी के एक प्रोग्राम में गाने के लिए बुलाया गया. उस वक्त एक प्रोग्राम में गाने के लिए उसे 65 रुपए मिलते थे. इत्तेफाक से वहीं जिस कागज में पकौड़े खाने को मिले थे, उसी में लड़के को बाबा बुल्ले शाह की एक काफी दिख गई. बोल थे-
हाजी लोक मक्के नूं जांदे
मेरा रांझा माही मक्का
लड़के ने रेडियो पर बाबा बुल्ले शाह का नाम सुन रखा था. उसने इस काफी पर थोड़ा काम किया और खुद ही धुन बनाकर इसे प्रोग्राम में लोकगीत के अंदाज में गाया. सुनने वालों की भीड़ में राज कपूर साहब भी बैठे थे. प्रोग्राम के बाद वो बैकस्टेज में आए. लड़के का नाम पूछा. पता चला- नरेंद्र चंचल. उन्होंने नरेंद्र चंचल (Bhajan Singer Narendra Chanchal) को सीने से लगा लिया. बुल्ले शाह के एक और गाने का जिक्र करते हुए पूछा- ये वाला आता है? जवाब मिला- हां. उन्होंने नरेंद्र चंचल को अगले दिन स्टूडियो आने का न्योता दे दिया.
इस तरह निकला- ‘मैं नईं बोलणा जा’ जिसने नरेंद्र चंचल की जिंदगी बदल दी
बाबा बुल्ले शाह के जिस कलाम का जिक्र राज कपूर ने पिछली शाम किया था, उसके बोल थे-
मस्जिद ढा दे, मंदिर ढा दे ढा दे जो कुज कैंदा
पर बुलेया किसे दा दिल ना ढावीं, रब दिलां विच रैंदा
बुल्ले शाह के इसी कलाम पर फिल्म बॉबी के लिए गाना लिखा गया-
बेशक मस्जिद मंदिर तोड़ो, बुल्ले शाह ये कहता
पर प्यार भरा दिल कभी ना तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता
जिस पलड़े में तुले मोहब्बत, उसमें चांदी नईं तौलणां
तौबा मेरी ना ढोलणां, मैं नी बोलणां
साल 1973 में जब बॉबी का म्यूजिक रिलीज हुआ तो इस गीत के साथ नरेंद्र चंचल सिंगिंग सेंसेशन बन गए. उस दौर के फिल्म संगीत में ये अपने तरह की अनूठी गायकी थी, बिल्कुल अलग तरह का साउंड था. इसमें कोई शक नहीं कि राज कपूर की पॉपुलर म्यूजिक पर गहरी पकड़ थी. पकड़ नहीं, समझ. लिहाजा फिल्म बॉबी के सारे गाने हिट हुए लेकिन ‘मैं नईं बोलणां जा’ के साथ एक सिंगर भी सुपरहिट हुआ- नरेंद्र चंचल.
शोहरत का नशा और शेरावाली मां का ‘सबक’! जब महीनों के लिए आवाज खो बैठे नरेंद्र चंचल
थोड़ा फ्लैशबैक में चलते हैं और इस स्टारडम के ठीक पहले की कहानी जान लेते हैं. ‘मैं नईं बोलणां जा’ के साथ ही शोहरत का जो ज्वार आया उसके कुछ साल पहले से ही नरेंद्र चंचल माता की भेंटे गाने लगे थे. बॉबी का गाना हिट हुआ तो शोहरत का नशा उनके दिमाग पर चढ़ गया. उन्हें लगने लगा कि अब ये माता का जगराता वगैरह करने की जरूरत क्या है? लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ जिसने नरेंद्र चंचल (Narendra Chanchal Bollywood)को जिंदगी का सबसे बड़ा सबक दे दिया. हुआ यूं कि जिस मंदिर में उनकी रेगुलर हाजिरी होती थी वहां जब वो गए तो पुजारी ने पहले ही जैसी बेतकल्लुफी से कहा- ‘कुछ भेंट सुनाओ’. नरेंद्र चंचल ने कह दिया- ‘मेरी तबीयत ठीक नहीं’ और वापस आ गए. उसके अगले दिन नरेंद्र चंचल को किसी शो के लिए आगरा जाना था. लेकिन सुबह सुबह ही उन्होंने महसूस किया कि उनकी आवाज बंद हो गई. मतलब गाना तो दूर, बोलना भी दूभर हो गया. ये हालत तकरीबन दो महीने तक रही. नरेंद्र चंचल अपने आध्यात्मिक गुरू के पास गए. उनके मार्गदर्शन से आवाज वापस मिली, लेकिन इस वाकए से उन्हें समझ में आ गया कि ये मां शेरावाली का संदेश है. उनके दिमाग में एक बात साफ हो गई- ‘माता की भेंटें ही मेरी प्राथिकता हैं, मेरी पहचान हैं.’
लता, मुकेश, जानी बाबू कव्वाल, मनोज कुमार और ‘महंगाई मार गई’ का किस्सा
बॉबी की कामयाबी के बाद नरेंद्र चंचल को हर कोई तलाश रहा था. 1974 में आई फिल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के लिए मनोज कुमार एक कव्वाली रिकॉर्ड करना चाहते थे- ‘बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई’. लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की बनाई कंपोजीशन को गाने के लिए जानी बाबू कव्वाल, लता मंगेशकर और मुकेश जी के नाम पहले ही तय हो गए थे. मनोज कुमार ने इसमें नरेंद्र चंचल को भी इस्तेमाल करने की सोची. नरेंद्र चंचल को जुहू के एक होटल में ठहराया गया था. रिकॉर्डिंग के दिन उन्हें जुकाम हो गया और आवाज बैठने लगी.
नरेंद्र चंचल ने लता मंगेशकर के साथ भी गाने गाए. (फोटो - ज़ी बिज़नेस)
चंचल बताते हैं कि मनोज कुमार को होमियोपैथी का अच्छा ज्ञान था. वो खुद अपनी गाड़ी में नरेंद्र चंचल को लेने आए और स्टूडियो के रास्ते में वो लगातार उन्हें मीठी गोलियां खिलाते रहे. इस तरह आवाज बेहतर हुई. स्टूडियो में गाने की डबिंग नहीं थी, सीधे रिकॉर्डिंग होनी थी. जानी बाबू की आवाज के साथ कव्वाली शुरू हुई, फिर लताजी की बारी आई, उसके बाद मुकेश जी की लाइनें आईं. इस बीच नरेंद्र चंचल को लगातार प्रेमनाथ कुछ कुछ समझा रहे थे क्योंकि चंचल की लाइनें उन्हीं पर फिल्माई जानी थीं, बहरहाल जब चंचल ने आलाप लगाया कि
पहले मुट्ठी में पैसे लेकर थैला भर शक्कर लाते थे
अब थैले में पैसे जाते हैं, मुट्ठी में शक्कर आती है
तो स्टूडियो में मौजूद सभी लोग तारीफ के भाव से मुस्कुराने लगे. नरेंद्र चंचल लाइव स्टेज वाले कलाकार थे इसलिए रिकॉर्डिंग से उन्हें डर नहीं लगता था. इस गाने पर उन्हें सबसे खूब बड़ी शाबाशी मिली. इसके बाद तो उन्हें लता जी के साथ डुएट गाने का भी मौका मिला. पंजाबी और हिंदी तो नरेंद्र चंचल की जुबान ही थी. इनके अलावा उन्होंने गुजराती, मराठी और बंगला भाषा में भी कई गाने गाए.
अपनी मां के आशीर्वाद से माता की भेंटों का दूसरा नाम बन गए नरेंद्र चंचल
एक इंटरव्यू में नरेंद्र चंचल ने बताया था कि उनकी मां बहुत अच्छा गाती थीं. उनकी आवाज की रेंज भी हाई नोट्स पर काफी अच्छी थी. नरेंद्र चंचल को वो आवाज मां से ही मिली थी. वो बताते हैं कि सुबह सुबह मां जब घर में बने मंदिर में पूजा और कीर्तन करने जाती थीं तो सभी भाई बहनों में से सिर्फ नरेंद्र को जगाकर अपने साथ ले जाती थीं. उनके साथ गाते-गाते ही नरेंद्र को भक्ति गीतों की शुरुआती तालीम मिली. जब नरेंद्र का थोड़ा नाम होने लगा तो मां बड़े गर्व से अपने मेहमानों को बतातीं- ‘ये मेरा मोहम्मद रफी है.’ ये मां का ही आशीर्वाद था कि चमकीली चुनरी ओढ़कर झूमते गाते नरेंद्र चंचल जगराता के सरताज बन गए. देश के बड़े आयोजकों के लिए माता की चौकी में नरेंद्र चंचल को बुलाना शान की बात बन गई. इस बीच 1980 में फिल्म आई आशा जिसमें नरेंद्र चंचल ने अपने आइडल मोहम्मद रफी के साथ गाया- ‘तूने मुझे बुलाया शेरावालिये, मैं आया मैं आया शेरावालिये.’ ये गाना अमर हो गया. इसके बाद 1983 में राजेश खन्ना की फिल्म अवतार में नरेंद्र चंचल की आवाज फिर गूंजी- ‘चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है’. साथ में थे महेंद्र कपूर और आशा भोसले. इन दो गानों ने ब्रांड नरेंद्र चंचल को दुनिया भर में मकबूल कर दिया. उम्र से मजबूर होने के बाद भी जब तक आवाज ने साथ दिया नरेंद्र चंचल माता की भेंटे गाते रहे. हर साल वो माता वैष्णो देवी के दरबार में जाकर हाजिरी लगाते थे और वहां गाते भी थे. नरेंद्र चंचल ने ढेरों अलबम निकाले, सैकड़ों भेंटें गाईं जो आज भी दुनिया भर गाई और सुनी जाती हैं और हमेशा सुनी जाती रहेंगी. अपनी फील्ड के सबसे बड़े गायक थे नरेंद्र चंचल. उन्होंने शोहरत की जो बुलंदियां हासिल कीं उन्हें कभी कोई दूसरा छू भी नहीं पाएगा.
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01:07 PM IST