चुनावी संग्राम में दोस्ती सिर्फ नफा-नुकसान देखकर होती है और इसका ताजा उदाहरण है यूपी का महागठबंधन. लोकसभा चुनावों से पहले BJP को करारी टक्कर देने और लोकसभा चुनाव में यूपी में अपना परचम लहराने के दावे करने वाले गठबंधन पर मंगलवार को ब्रेक लग गया. चुनाव से पहले अपने बरसों पुराने गिले-शिकवे भूलाकर मायावती और मुलायम सिंह यादव एक साथ एक मंच पर आए लेकिन ये समझौता भी काम न आया.

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सच हुई पीएम की भविष्यवाणी

महागठबंधन का लक्ष्य यूपी से BJP का सफाया था, तो वहीं यूपी की जनता को एक अच्छा विकल्प देने के दावे भी किए गए. लेकिन, लोकसभा चुनाव के नतीजों ने तो जैसे महागठबंधन के सारे अरमानों पर पानी फेर दिया. यूपी की 78 सीटों पर लड़ा महागठबंधन सिर्फ 15 सीटें अपने हक में कर पाया. इन नतीजों के बाद सपा-बसपा में खलबली मचना तो तय था. हुआ भी वही जिसकी भविष्यवाणी प्रधानमंत्री ने चुनाव के पहले की थी. माया और अखिलेश की राहें जुदा-जुदा हो गईं.

बीजेपी ने ली चुटकी

जाहिर है इस गठजोड़ के टूटने का मौका बीजेपी कैसे जाने देती तो बीजेपी की तरफ से प्रतिक्रियाएं आईं. यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और बीजेपी प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने भी खूब चुटकी ली. इन सियासी समीकरणों को परखा जाए तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि हर तरफ से नुकसान सपा को ही है. बुआ ने तो किनारा कर ही लिया साथ ही परिवार के मुखिया से भी खरी खोटी सुनने को मिल रही है.

माया ने खुद को किया अलग

बहन जी की बॉडी लैंगवेज और बातों से साफ था कि वो सारा कलंक सपा के माथे मढ़ संभावनाओं की हल्की सी खिड़की खोल खुद को और बसपा को साफ-साफ हार के दोष से किनारे कर रहीं है. वहीं, अखिलेश अकेले पड़ते नजर आ रहें हैं, उनकी बातों में हताशा साफ दिख रही है.

मायावती की थ्योरी पर सवाल क्यों नहीं?

2014 में जहां सपा के पास 5 सीटें थी, 2019 में भी वह 5 सीटों तक सीमित रह गई. सपा अपने घर की सीटें भी नहीं बचा पाई. दूसरी तरफ बसपा जो कि 2014 में अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी उसने 2019 में 10 सीटों पर जीत हासिल की. इसके बावजूद अखिलेश ने मायावती की थ्योरी पर सवाल क्यों नहीं उठाए ये सोचने वाली बात है. महागठबंधन में हर जगह अखिलेश दूसरी पॉजिशन पर रहे और हमेशा मायावती को अपर हैंड दिया.

सिर्फ मौकापरस्ती था महागठबंधन?

चुनावी समझौते के लिए भी RLD की मांग पर सपा ने अपने कोटे से एक सीट RLD को दी. और इन सब के बावजूद कोई ठगा गया तो वो अखिलेश यादव रहे. अब यहां पर सवाल तो कई उठ रहे हैं. जिस तरह मायावती ने महागठबंधन की हार का ठीकरा अखिलेश यादव और सपा पर फोड़ दिया. उससे सवाल उठता है कि क्या यूपी का यह महागठबंधन सिर्फ मौकापरस्ती था या फिर मायावती ने अब सपा से कोई खास फायदा ना दिखते देख अलग रास्ता अपनाने की बात कर डाली?

क्या है मायावती का 'माया'जाल?

मायावती ने जिस तरह अखिलेश को सलाह देते हुए फिर से महागठबंधन की उम्मीदों को जिंदा रखा है. क्या ये मायावती की कोई चुनावी चाल है या खुद को नाजुक मौके पर सही साबित करने का पॉलिटिकल स्टंट? क्या सपा-बसपा में आई ये फूट उनके भविष्य में होने वाले किसी भी गठबंधन की संभावनाओं को नष्ट कर देगी?