मोदी सरकार के आलोचक नोटबंदी के समय भारतीय रिजर्व बैंक पर आरोप लगाते थे कि उसने सरकार के आगे हथियार डाल दिए हैं, फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि दोनों के बीच तनातनी इतनी बढ़ गई कि रिजर्ब बैंक ने खुली चेतावनी दे दी कि जो सरकारें केंद्रीय बैंक की स्वायत्ता का सम्मान नहीं करती हैं, उन्हें वित्तीय बाजार की नाराजगी सहनी पड़ती है.

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इस तनाव की शुरुआत नोटबंदी के समय से ही हुई. माना जाता है कि नोटबंदी पूरी तरह वित्त मंत्रालय की योजना थी, और जब इसके नतीजे उम्मीद के मुताबिक नहीं आए, तो सारी जिम्मेदारी रिजर्ब बैंक के ऊपर डाल दी गई. यहां से रिजर्व बैंक के अधिकारियों में नाराजगी पनकी. भारतीय रिजर्व बैंक का पूरी दुनिया में सम्मान है, और रिजर्व बैंक अब और अधिक समझौता करना नहीं चाहता था.

इसके साथ ही सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच टकराव का सिलसिला शुरू हुआ, जो अब मीडिया और सत्ता के गलियारों में चर्चा का विषय है. यहां हम आपको 7 ऐसे बड़े कारण बता रहे हैं, जिनके चलते रिजर्व बैंक और सरकार के बीच बात बिगड़ती चली गई. 

1. केंद्रीय बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल और सरकार के बीच टकराव का पहला मुद्दा बना मुख्य ब्याज दरों में कटौती. सरकार चाहती थी कि निवेश को बढ़ावा देने के लिए ब्याज दरों में कमी की जाए, जबकि रिजर्व बैंक का जोर महंगाई कम करने पर था. रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के नेतृत्व वाली मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने दरों पर फैसला लेने से पहले मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन से मुलाकात करने से मना कर दिया. ये पहली ऐसी बड़ी घटना थी, जिसने सरकार और रिजर्व बैंक के बीच लकीर खींच दी.

2. सरकार चाहती थी कि कंपनियां जो कर्ज बैंकों को नहीं दे पा रही हैं, उसे रिस्ट्रक्चर कर दिया जाए, यानी कर्ज चुकाने की अवधि को बढ़ा दिया जाए. रिजर्व बैंक ने ऐसी सभी स्कीमों को बंद कर दिया. इससे कंपनियों के डिफाल्ट खुलकर सामने आने लगे और अर्थव्यवस्था की कमजोरी साबित हुई. सरकार ने रिजर्व बैंक के इस कदम का विरोध किया, लेकिन रिजर्व बैंक ने कोई राहत नहीं दी.

 

3. पीएनबी घोटाले का दोष सरकार ने रिजर्व बैंक पर डालने की कोशिश की. इस पर रिजर्व बैंक ने कहा कि उसके पास सरकारी बैंकों के रेग्युलेशन के लिए पर्याप्त शक्तियां नहीं हैं. साथ ही रिजर्व बैंक ने बैंकों पर अधिक नियंत्रण और सख्त निगरानी के लिए अधिक शक्तियों की मांग की. इस बारे में सरकार और रिजर्व बैंक के बीच एक मौकों पर सार्वजनिक रूप से संकेतों में कहासुनी हुई.

4. सरकार अपने राजकोषीय घाटे को काबू में रखने के लिए रिजर्व बैंक से करीब 66000 करोड़ रुपये का लाभांश हासिल करना चाहती थी, लेकिन उसे मिले सिर्फ 30,000 करोड़ रुपये. इसके बाद वित्त मंत्रालय ने और अधिक लाभांश की मांग की, लेकिन केंद्रीय बैंक ने इनकार कर दिया. 

5. रिजर्व बैंक ने सरकारी बैंकों को पर शिकंजा कसते हुए करीब आधे बैंकों पर कर्ज देने में कई तरह की पाबंदियां लगा दीं. रिजर्व बैंक का कहना है कि इस कदम से बैंकों का एनपीए नियंत्रण होगा, जबकि सरकार की दिक्कत ये है कि ऐसा करने से व्यवस्था में नकदी की कमी हो रही है.

6. आईएलएंडएफएस डिफॉल्ट की वजह से गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) में नकदी का भारी संकट पैदा हो गया. इसका असर बाजार पर पड़ने का खतरा पैदा हो गया.

7. सरकार ने नचिकेत मोर को उनका कार्यकाल खत्म होने से पहले ही बिना सूचना दिए बोर्ड से हटा दिया. नचिकेत मोर ने ही सरकार द्वारा मांगे गए 66000 करोड़ रुपये के लाभांश का खुलकर विरोध किया था. सरकार एस. गुरुमूर्ति और सतीश मराठे को बोर्ड में शामिल किया.