Privatization of Banks: सरकारी बैंकों के निजीकरण की पहल को एक बड़ा आर्थिक सुधार बताया जा रहा है लेकिन रिजर्व बैंक (RBI) के अगस्त बुलेटिन में छपे एक लेख के मुताबिक सरकारी बैंकों (public sector banks)का तेजी से निजीकरण करना सही नहीं होगा. लेख में दलील दी गई है कि सरकारी बैंक फाइनेंशियल इन्क्लूजन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. ऐसे में निजीकरण सोच समझकर होना चाहिए क्योंकि निजी बैंकों का मुख्य उद्देश्य मुनाफे को बढ़ाना ही रहा है, जबकि सरकारी बैंक बड़े सामाजिक लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करते हैं.  

COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

 

सामाजिक लक्ष्य हासिल करने में सरकारी बैंक आगे 

फाइनेंशियल इन्क्लूजन के दूर दराज के इलाकों में बैंकों की मौजूदगी अहम है. मार्च 2021 तक के आंकड़ों में दावा किया गया है कि सरकारी बैंकों की 33% से ज्यादा शाखाएं ग्रामीण इलाकों में हैं. निजी बैंकों के मामले में ये आंकड़ा करीब 21% हैं.  जबकि अर्ध शहरी इलाकों में निजी बैंक करीब 32% शाखाओं के साथ लीड रोल में हैं. शहरी इलाकों में सरकारी बैंकों की शाखाओं का हिस्सा करीब 19% है, जबकि निजी बैंकों की हिस्सेदारी 21% के आसपास है. वहीं महानगरों में 26.5% की हिस्सेदारी के साथ निजी बैंक लीड ले रहे हैं. इसी तरह बैंकिंग कॉरेस्पॉन्डेंट और ATM की संख्या के मामले में भी सरकारी बैंक (Privatization of Banks) ग्रामीण इलाकों में काफी आगे हैं. आंकडों में दावा किया गया है कि जनधन योजना के 45 करोड़ खातों में से 78% सरकारी बैंकों में ही हैं और इसमें से भी 60% खाते ग्रामीण और अर्ध शहरी इलाकों में हैं.  

कारोबार का रुख देखकर कर्ज बांटते हैं निजी बैंक   

आंकड़ों के आधार पर लेख में ये भी दावा किया गया है कि निजी बैंक उस सेक्टर को कर्ज बांटने में दिलचस्पी रखते हैं जो उस वक्त के आर्थिक रुख के हिसाब से ठीक हो. जबकि सरकारी बैंक (Privatization of Banks) उन सेक्टर की कंपनियों को भी कर्ज बांटते हैं जिनका कारोबार रुख के विपरीत हो. इस तरह से सरकारी बैंक मॉनिटरी पॉलिसी के मकसद को पूरा करने में मदद करते हैं. लेख में ये भी कहा गया है कि केवल बैंकों के निजीकरण (Privatization of Banks) से ही आर्थिक तरक्की नहीं हो जाती जैसे कि इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को कर्ज बांटने में सरकारी बैंक, निजी बैंकों के मुकाबले कहीं आगे ठहरते हैं. ये भी दावा किया गया है कि मॉनिटरी पॉलिसी का ट्रांसमिशन सरकारी बैंकों में निजी के मुकाबले ज्यादा जल्दी होता है.

सरकारी बैंकों में एफिशिएंसी ज्यादा 

लेख में इस धारणा को भी ध्वस्त करने की कोशिश की गई है कि सरकारी बैंकों (public sector banks) में इनएफिशिएंसी होती है, जबकि निजी बैंक ज्यादा एफिशिएंट होते हैं. लेख में 2010 से लेकर मार्च 2022 तक के आंकड़ों के आधार पर दावा किया गया है कि सरकारी बैंकों में साल 2016 को छोड़कर कॉस्ट एफिशिएंसी ज्यादा रही है. साथ ही ये भी कहा गया है कि संकट के समय सरकारी बैंकों पर लोगों का भरोसा भी ज्यादा रहता है .  

सरकारी बैंकों के आएंगे अच्छे दिन 

लेख में कहा गया है कि बैंकों के निजीकरण (Privatization of Banks) को नए नजरिये से भी देखने की जरूरत है. अब ये मानकर नहीं चला जा सकता है कि निजीकरण हर समस्या का हल है क्योंकि आंकड़े ये दर्शाते हैं कि निजीकरण होने पर मुख्य उद्देश्य मुनाफा बढ़ाना ही हो जाता है. जबकि सरकारी बैंकों का मकसद बस मुनाफा नहीं बल्कि सामाजिक उद्देश्यों को पूरा करना भी रहा है. लेख में कहा गया है कि कमजोर बैलेंसशीट के बावजूद भी सरकारी बैंकों (public sector banks)को लेकर लोगों का भरोसा डिगा नहीं है. ये भी कहा गया है कि बीते कुछ साल में आपसी विलय के बाद सरकारी बैंक मजबूत हो रहे हैं. बैड बैंक बनने के बाद पुराने डूबे कर्जों के बोझ भी कम होंगे. इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए लंबी मियाद का कर्ज देने वाली संस्था NABFiD बनने से असेट लाइबिलिटी मिसमैच घटेगा इंफ्रास्ट्रक्चर लेंडिंग का भार भी सरकारी बैंकों से कम होगा. ऐसे में बड़े पैमाने पर सरकारी बैंकों का निजीकरण करने की सोच अच्छी नहीं रहेगी, बल्कि सरकार को धीरे-धीरे निजीकरण की ओर बढ़ना चाहिए.